ठीक ही तो कहा उसने
क्या दरिद्रों की तरह
लम्हों के पीले पत्ते
बटोरती हो और
और कबाड़ी वाले की तरह
टेर लगाए फिरती हो
एहसासों के मोती चुगो
और राज हंसिनी कहलाओ
और मैं सोचती हूँ
उसकी जेब से
अपने हिस्से की
अठननी चवन्नी
झपट कर भाग खड़ी होऊं
कंजूस एक एक पाई का
हिसाब रखता है
Gul Sarika
Comment
दो भिन्न विचारों के टकराव की सुन्दर प्रस्तुति. सुन्दर प्रवाहमयी रचना के लिए सादर बधाई स्वीकारें आदरणीया.
कंजूस एक एक पाई का
हिसाब रखता है
क्या खूबसूरती से कह डाला आपने!
बहुत ही सुन्दर! कविता समाप्त होते होते भाव और कहन के चरम पर पहुंच गयी। मेरी बधाई स्वीकारें!
आदरणीया सारिका जी , रचना पाठक के मन को अपने साथ उस यात्रा पर ले जाने में सक्षम है जिसका सफ़र वह स्वयं तय करती है , साधुवाद इस प्रवाह और इस भाव भूमि के लिए !!
Bahut hi bhagyashaalee hun main jo aap jaise pathak mile ..wastav me dubki lagakar antarnihit bhawon tk pahuchne wale kushal gotakhor hain aap sab.... meri shikayat rahee the hameshaa se apne pathkaon se ..ki wh uthle bhawarth pr apne mantwya dete hain ...sarthak huee meri lekhi ... sahuwaad aap sabhee ko .. Abhara sweekaarain
ऐसा लगता है जैसे किसी अनुभव का अर्द्धांश भर हो पर इसमें अनकहा इतना कुछ है कि उसे ढूंढते-ढूंढते आंखें परेशान हो जाती है, बहुत अच्छी रचना है,सादर
आदरणीया गुल सारिकाजी, बड़े मनोयोग से कई दफ़े आपकी रचना को पढ़ गया. अंतर्निहित भाव एकदम से चौंकाते हैं और आपकी कविता आखिर आते-आते बहुत ऊँची हो जाती है.
हृदय से बधाई स्वीकारें.. . शुभकामनाएँ.
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