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परिचित अपरिचय ... (विजय निकोर)

परिचित अपरिचय

 

गीले भाव, भीगे गाल, स्वप्न रूआँसे

विवेकी-अविवेकी कोषों में बसे

सूक्षमातिसूक्षम खयाल मेरे

रातों तिलमिलाते, क्यूँ ?

गुँथे खयालों से तुम्हारे

अभी बिंधे तुमसे, अभी उलझे मुझमें

 

सूर्य की किरणों का उल्लास बटोरती

अकेले-अकेले में अपने से सहजतम

तुम भी तो बातें करती नहीं थकती थीं

खयालों की धारा-गति अनचीन्ही

सोच-सोच कर मुझको पगली-सी हँसती ..

आँचल की लहरीली सलवटें शरमा देतीं

 

पर अब बीच हमारे वह बातें कहाँ

उच्छ्वास भी दुरूहतम

गहन सोच की सोच बढ़ गई है बस

विचारों के ब्रह्माण्ड में असीम बिखराव,

कष्टग्रस्त वेदना,  आत्यन्तिक तनाव

सब  कविता की पंक्तियों में गिरफ़्तार

 

बातें ? अब ... कौन-सी बातें ?

हमारी परस्पर दुखती मार्मिक चोट

से परिचित अपरिचय दिखाती

हर मिलने पर हृदय की धड़कन को थामे

तभी तो काँपते ओंठों से कह देती हो बस...

"कहिए"

 

                 --------

                                    विजय निकोर

 

(मौलिक व अप्रकाशित)

                                     

 

 

 

 

 

 

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Comment by गिरिराज भंडारी on January 27, 2014 at 6:30pm

आदरणीय बड़े भाई विजय जी , मेरी सांस छोटी पड गई , रचना की गहराई जादा , गहराई तक नही पहुँच पाया । सूक्ष्मतम भावों मे पिरोयी आपकी रचना के लिये बधाइयाँ ॥ अभी खुद को खोदना बहुत बाक़ी है , आपकी कविता की गहराई तक पहुँचने के लिए ॥

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 26, 2014 at 7:35pm

आदरणीय भाई विजय निकोर जी एक भावपूर्ण रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें .

कृपया ध्यान दे...

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