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फूल कैसे खिलें ? ( एक अतुकांत चिंतन ) गिरिर्राज भंडारी

फूल कैसे खिलें ?  ( एक अतुकांत चिंतन )

***************

प्रेम विहीन हाथ मिले तो ज़रूर

मुर्दों की तरह , यंत्रवत

तो भी खुश हैं हम

शायद अज्ञानता और बेहोशी भी खुशी देती है ,एक प्रकार की

झूठी ही सही

और झूठी इसलिये

क्यों कि बेहोशी का सुख हो या दुख , झूठा ही होता है

 

इसलिये भी, क्योंकि

हम स्वयँ जीते ही कहाँ है

जीती तो है एक भीड़ हमारी जगह ,

भीड़ विचारों की , तर्कों – कुतर्कों की

भीड़ शंकाओं- कुशंकाओं की , डर की

भीड़ इच्छाओं – अनिच्छाओं की,

भीड़ जिसका विवेक नही होता ,

 

भीड़ कभी मरती नहीं

शक्लें बदल लेतीं हैं और जीती रहती हैं , हमेशा  

इसीलिये हम स्वयँ कभी जी ही नही पाते

भीड़ ही जीती है हर समय , हर पल हमारी जगह

भीड- मरे तब तो स्वयँ जियें न !

 

स्वयँ जीते तो पता लग ही जाता

हाथ ही मिले थे , निर्जीव

प्रेम तो बहा ही नही , न इधर से उधर .न ही उधर से इधर

फिर फूल कैसे खिलें ?

प्रेमाश्रु कैसे बहें?

ह्रदय कैसे मिलें ?

निर्जीव हाथों के मिलने से

*************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Dr.Vijay Prakash Sharma on July 1, 2014 at 9:12am

यह दुनियादारी की सचाई है, रचना बहुत सुन्दर है . बधाई .

Comment by बृजेश नीरज on June 30, 2014 at 10:54pm
अच्छी रचना है। आपको हार्दिक बधाई।

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