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ग़ज़ल - सब रस्ते इन शहरों के बातूनी हैं ( गिरिराज भंडारी )

22   22  22  22   22  2

ये कैसी महफिल में मुझको ले लाया

हर कोई लगता है गुमसुम, थर्राया

 

सब रस्ते इन शहरों के बातूनी हैं

गाँवों की गलियों को सब ने फुसलाया

 

साहिल साहिल बात चली है लहरों में

तूफ़ाँ ने जब तोड़ी कश्ती, इतराया                                                                                                                                                               

क्या जज़्बा हाथों से बहते रहता है ?

धोते ही हाथों को पानी गँदलाया

 

दोनों कूदे संग प्रेम की खाई में

प्रश्न कहाँ तब, किसने किसको बहकाया

 

बाग़ों, फूलों, पगडंडी की बातें कर

धुयें उगलती चिमनी से मन उकताया  

 

झूठ बहुत वाचाल मिला जो झूठों में    

सच के आगे वही झूठ था हकलाया

 

धीरे धीरे यादें सब मिट जायेंगी

जैसे वक़्त हुआ तो माजी धुँधलाया 

*********************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

 

 

 

 

 

 

 

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Comment by Pari M Shlok on February 24, 2015 at 11:35am
धीरे धीरे यादें सब मिट जायेंगी

जैसे वक़्त हुआ तो माजी धुँधलाया
बिलकुल सही फ़रमाया आपने ... सुन्दर ग़ज़ल
Comment by Dr. Vijai Shanker on February 24, 2015 at 11:29am
झूठ बहुत वाचाल मिला जो झूठों में
सच के आगे वही झूठ था हकलाया
सारगर्भित, सुन्दर प्रस्तुति, आदरणीय गिरिराज भंडारी जी,,सादर।

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