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नव - स्पंदन
____________


मृगतृष्णा कैसी यह
कौन सी चाह है
दिनमान हैै जलता हुआ
ये कौन सी राह है

चल रही हूँ मै यहाँ
एक छाँह की तलाश में
मरू पंथ में यहाँ
कौन सी तलाश है

बाग वन स्वप्न सरीखे
कलियाँ कहाँ कैसी भूले
मन की तलहटी में
प्रिय का निवास है

सुरम्य वादी है वहां
छुपी हुई एक आस है
मुँद कर पलकों को
प्रिय दर्शन की आस है

प्राण की सुधी ग्रंथी में
आजतक हो बसे
जलती रही हूँ निरंतर
चाहत मेरी एक प्यास है

कंठ में नित राग
आतुर गीत विरह के
चिता भूमि सी लगे
प्रिय बिना संसार ये

विधान विधाता ने रचा
रोये निरीह निबल मन
अस्मिता प्रीत की छुपाये
नव - स्पंदन की आस है


कान्ता राॅय
भोपाल

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment

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Comment by kanta roy on May 26, 2015 at 12:05pm
बहुत बहुत आभार आपको आदरणीया माला जी कविता पर अपनी प्रतिक्रिया देने हेतु ।
Comment by narendrasinh chauhan on May 26, 2015 at 12:00pm

बहुत बधाई आपको इतनी सुन्दर रचना के लिए

Comment by Mala Jha on May 25, 2015 at 7:35am
नव स्पंदन की आस है!!
बहुत खूब कांता जी।बहुत बहुत बधाई आपको इतनी सुन्दर रचना के लिए।
Comment by kanta roy on May 24, 2015 at 12:35pm
आभार आपको आदरणीय डा. आशुतोष मिश्रा जी कविता का मर्म समझने हेतु ।
Comment by Dr Ashutosh Mishra on May 24, 2015 at 12:25pm

आदरणीया कांता जी ,,प्रेमी मन की व्यथा का चिंतन करती इस शानदार रचना  के लिए ढेर सारी दाद क़ुबूल करें सादर 

कृपया ध्यान दे...

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