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ठठरी पर ईमानदारी /लघुकथा /कान्ता राॅय

ईमानदारी जरा चोटिल ही हुई थी कि मौके का फायदा उठा कुछ लोगों ने उसे निष्प्राण घोषित कर तुरत - फुरत में ठठरी पर कसने लगे । उन्हे डर था उसके वापस जिंदा हो गतिमान होने का ।
जिन चार कंधों पर उसकी अर्थीं उठाई जा रही थी उनमें सबसे आगे देश के कर्णधार थे उसके पीछे भ्रष्टाचार , देश के सफलतम व्यवसाई और शेयर दलाल थे ।
सबकी आँखें चमक रही थी । सबके मन में लड्डू फूट रहे थे कि पीछे रोती हुई जनता अचानक खुशी के मारे तालियाँ बजाने लगीं ।
तालियों की शोर पर काँधे देने वालों ने चौंक कर देखा तो ईमानदारी सारी रस्सी तोड़कर उठ बैठी थी ।
.
मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by Omprakash Kshatriya on August 6, 2015 at 1:51pm
जोरदार लघुकथा आ कान्त जी ।सच्चाई कभी नहीं मरेगी ।
Comment by pratibha pande on August 6, 2015 at 1:36pm

इमानदारी को चार कंधों पर लादने की जिन्हें जल्दी होती है ,उन्हें पता है कि अगर ये नहीं गई तो उनकी शानो शौकत चार कंधों पे चढ़ हमेशा के लिए चल देगी , बधाई इस सशक्त रचना के लिए आ० कांता जी


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Comment by rajesh kumari on August 6, 2015 at 1:08pm

बिम्बों के माध्यम से बहुत सुन्दर सन्देश दिया है आ० कांता जी इस लघु कथा में सच कहा जिस दिन इमानदारी पूर्णतः समाप्त हो जायेगी तो समझो सर्वनाश दूर नहीं |हार्दिक बधाई इस सुन्दर प्रस्तुति पर |

Comment by Dr. (Mrs) Niraj Sharma on August 6, 2015 at 1:01pm

ईमानदारी को ठ्ठरी पर डाल कर ले जाना इतना भी आसान नहीं है, अनेक कोशिशों के बावजूद भी, वो बार बार उठ बैठती है, तभी तो दुनिया टिकी है अब तक। सुन्दर लघुकथा। बधाई आ. कान्ता जी।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 6, 2015 at 12:32pm

आदरणीया कांता जी, बहुत बढ़िया लघुकथा हुई है. इस सफल लघुकथा पर हार्दिक बधाई.

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