सावन की बुनझीसी सखी है तन में लगाए आग .......बदरिया कहाँ गई
गोर बदन कारी रे चुनरिया ,सर से सरकी आज ......बदरिया कहाँ गई
सावन भादों रात अंहारी थर - थर काँपय शरीर ...... बदरिया कहाँ गई
दादूर मोर पपीहा बोले कहाँ गये रघुनाथ.....बदरिया कहाँ गई
अमुआँ की डारी झूले नर- नारी मैं दहक अंगार ....बदरिया कहाँ गई
उमड़ उमड़े नदी जल पोखर तन में रह गई प्यास...... बदरिया कहाँ गई
सब सखी पहिरय हरीयर चुड़ी मोरा कंगना उदास ...... बदरिया कहाँ गई
सावन पिया आवन कह गये नैहर कैसे जाऊँ ..... बदरिया कहाँ गई
सुध बिसरे मेरी प्रीत की प्रीतम सौतन घर किये वास ......... बदरिया कहाँ गई
तरूण बयस मोरा पिया तेजल भीजल देह लगे आग ...... बदरिया कहाँ गई
जग हरीयाली सगरे छाई मोरा मन सुखमास ....... बदरिया कहाँ गई
बेली चमेली करे अठखेली बरखा झींसी फुहार ......बदरिया कहाँ गई
पिया जब आये आस पुराये सावन हुआ मधुमास .....बदरिया आ ही गई
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
हरी हरी सर से सरके चुनरिया बदरिया आयो हे हरी
पिया बिन सूनी आज सेजरिया बदरिया आयो हे हरी
बिहार में प्रचलित कजरी के बोल मैं यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ आदरणीया कांता रॉय जी
वैसे आपकी रचना सावन के मौसम के अनुरूप है और सावन में गीतों, झूलों, कजरियों का माहौल कभी रहता था ...आज यह सब लुप्तप्राय सा हो गया है ...सादर!
आदरणीया इस तरह की रचना पहली बार इस मंच पर पढ़ रहा हूँ ..इस रचना को पढ़कर बचपन के दिन याद आ गए जब इस तरह के मिलते जुलती रचनाएँ सुनने को मिल जाया करती थी //ढेर सारी बधाई के साथ सादर
वाह! आ० आपकी रचनाकर्म के विविध रंग देखते ही बन रहे है! सावन की मस्ती में ओत-प्रोत इस लोगगीत पर तहेदिल से बधाई!
आदरणीया कांता जी, बहुत ही सुन्दर रचना हुई है. लालित्य से परिपूर्ण इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई. लोकगीतों की तर्ज़ पर इसे गुनगुनाते हुए आनंद आ गया. सादर
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