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आप से इस हृदय का अनुबंध तोड़ा ना गया

2122 2122 2122 212
प्रीत या अनुराग का अनुबंध कब तोड़ा गया।
इस हृदय का आप से सम्बन्ध कब तोड़ा गया।।

तोड़ देता किस तरह से साँस अपनी ही स्वयं।
धड़कनों पर आपका प्रतिबन्ध कब तोड़ा गया।।

तोड़ देता किस तरह से साँस अपनी ही स्वयं।
धड़कनों पर आपका प्रतिबन्ध कब तोडा गया।।

गीत मैं सुर हो तुम्हीं हाँ शब्द मैं सरगम तुम्हीं।।
इस पुरुष का तुझ प्रकृति से बन्ध कब तोड़ा गया।।

राजपथ पर ख़्वाब के हो हमसफ़र बस एक तुम।
तुझसे अरमानों का सब गठबन्ध कब तोड़ा गया।।

खोजता हूँ मैं तुम्हें ही यत्र हाँ सर्वत्र सुन।
चक्षु दर्पण से प्रिये छविबन्ध कब तोड़ा गया।।

मौलिक अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Madan Mohan saxena on September 28, 2015 at 3:44pm

अच्छी ग़ज़ल

तोड़ देता किस तरह से साँस अपनी ही स्वयं।
धड़कनों पर आपका प्रतिबन्ध कब तोडा गया।।

गीत मैं सुर हो तुम्हीं हाँ शब्द मैं सरगम तुम्हीं।।
इस पुरुष का तुझ प्रकृति से बन्ध कब तोड़ा गया।।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 28, 2015 at 8:49am

आदरणीय पंकज भाई ,  ग़ज़ल अच्छी कही है आपने आपको हार्दिक बधाइयाँ ।

मुझे आपकी गज़ल के रदीफ कर शंका हो रही है -- आपने,  कब तोड़ा गया   रदीफ माना है ,  और मुझे शंका है  -- बन्ध कब तोड़ा गया , पूरी रदीफ मान लिये जाने की  , अगर ऐसा हुआ तो  आपकी गज़ल बिना काफिया के हो जायेगी , और ख़ारिज हो जायेगी । आप इंतिजार कर सकते हैं गुणिजनों का ।

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 24, 2015 at 10:36pm
तोड़ देता किस तरह से साँस अपनी ही स्वयं।
धड़कनों पर आपका प्रतिबन्ध कब तोड़ा गया।।


ये शेर दो बार लिख गया है; गलती से।।
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 24, 2015 at 10:34pm
आदरणीय काँटा रॉय मैम सादर अभिवादन
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 24, 2015 at 10:33pm
आदरणीय गोपाल सर सादर आभार्
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 24, 2015 at 7:34pm
आदरणीय मिथिलेश सर सादर अभिवादन।
सुझाव अतिउत्तम है;इसे यथावत संशोधित कर देता हूँ।।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 24, 2015 at 7:33pm

पकज  जीआपकी बेहतरीन कोशिश पर  आपको बधाई .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 24, 2015 at 1:03pm

आदरणीय पंकज जी बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुई है. मैं आदरणीय मनोज भाई जी की बात से सहमत हूँ कि गजल में ना की जगह न का प्रयोग होता है जिसका वज्न 1 होता है. अतः उनकी इस्लाह // 212 की जगह 22 कर ले// या इसी बह्र में कहना हो तो कुछ यूं किया जा सकता है-

प्रीत या अनुराग का अनुबंध कब तोड़ा  गया।
इस हृदय का आप से सम्बन्ध कब तोड़ा  गया।

तोड़ देता किस तरह से साँस अपनी ही स्वयं,
धड़कनों पर आपका प्रतिबन्ध कब तोड़ा  गया।


Comment by kanta roy on September 24, 2015 at 1:01pm
कितने सुंदर भाव है हर अशआर के ! अनुरागी मन का ये राग मन को भा गया । बेहतरीन , बधाई स्वीकार किजिए आदरणीय पंकज जी ।
Comment by मनोज अहसास on September 24, 2015 at 7:40am
आदरणीय पंकज भाई नमस्कार
बहर को साधने के आपके प्रयास की बधाई
अच्छी ग़ज़ल कही है आपने
मंच के ज्ञानी गुणी रचनाकारों का निर्देश है कि गजल में ना की जगह न का प्रयोग होता है ना कोई शब्द नहीं है
ना को न करें
ये एक मात्रिक ही रहेगा
ऐसा करने पर या तो 212 की जगह 22 कर ले
और पुनः पूरी ग़ज़ल उस पर साधे
या फिर न की जगह कोई दो मात्रिक शब्द लें

जैसे जा, क्यों ,तो ,जो आदि
ग़ज़ल के विषय में कुछ और निवेदन भी है
पहले ये काम आप edit करके कर ले
और पूरी ग़ज़ल की एक बार मात्र गणना पुनः करें
संयुक्त अक्षर पर थोडा और ध्यान दें
मंच पर संयुक्त अक्षरों की गणना का तरीका बताया गया है वो देखे


आपको बहुत बधाई
और आदरणीय मंच से मार्गदर्शन का निवेदन
सादर

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