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ग़ज़ल...नींद हमारी ख्वाब तुम्हारे-बृजेश कुमार 'ब्रज'

22 22 22 22
फिरते हैं बन वन बंजारे
नींद हमारी ख्वाब तुम्हारे

जब भी होंट खुले तो पाया
नाम तुम्हारा साँझ सकारे

जाने वाले आ भी जा अब
तुझको मेरी आह पुकारे

दर्द जुदाई आहें आँसू
जीवन है या कोइ सजा रे

कितने अरसे बाद मिले हो
ओ मेघा मनमीत सखा रे
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

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Comment

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 1, 2017 at 8:49am
उचित है आदरणीय समर जी..वैसे मैं सहमत तो नहीं हो पा रहा हूँ।लेकिन आपके कहे अनुसार कोशिश करता हूँ कुछ अच्छा कह सकूँ...सादर
Comment by Samar kabeer on July 31, 2017 at 10:14pm
ये तो आप समझ रहे हैं,एक पाठक तो इसे अलग अलग मिसरे ही समझेगा न ?
सानी मिसरा दूसरा कहिये ।
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on July 31, 2017 at 8:04pm
आदरणीय समर कबीर जी सादर नमन..एक प्रेमी जब जब सोने की कोशिश करता है प्रेयशी ख्वाबों में आ जाती है। यही कहने की कोशिश की है कि ज्यूँ बंजारे बन के वन वन भटक रहे हैं नींद हमारी ख्वाब तुम्हारे। आगे आप जैसा मार्गदर्शन करें।
Comment by Samar kabeer on July 31, 2017 at 3:24pm
जनाब बृजेश कुमार'ब्रज'साहिब आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
'फिरते हैं बन वन बंजारे
नींद हमारी ख़्वाब तुम्हारे'
क्या बात हुई ? क्या कहना चाहते हैं ?
दोनों मिसरों में बज़ाहिर रब्त नज़र नहीं आता ।

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