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कविता - नंगे खुले हम्मामों के खेल !

कविता - नंगे खुले हम्मामों के खेल !
 
छोड़ भी दें
संस्कारों के ये झूठे  चोंचले सब
तोड़ डालें औचित्यों के सभी कंचे
चलो खेलें सभी मिलकर
नंगे खुले हम्मामों के खेल !
 
 सभ्यताओं के शहर हैं
और कितने उधड़े हम ,
आओ खुद को बेचें
खरीदार बहुत हैं !
  
तुम अपनी उँगलियाँ
ऊपर उठाओ
और आँखें सामने रखो
दिखेगा सब
न ललचाओ न चाटो
है देना दोष तो उस स्रष्टा को दो
गढ़ा जिसने हमें है
और जिसने सोच की  शक्ति हमें दी !
  
तुम्हारे उपनिषद और वेद सारे
है पढता कौन उनको
ममी की शक्ल में हैं सब ऋषि और कलम वाले
और ठोंगे बन गए हैं  उपनिषद के उधडे पन्ने
चलो उनको उड़ायें
कि हम सब तितलियाँ हैं
फैलाते घोर अपसंस्कृतियों के पराग !
 
                                      {अभिनव अरुण}

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Comment

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Comment by Abhinav Arun on June 22, 2011 at 11:45am

श्री वीरेंदर जी और प्रदीप  जी के प्रति हार्दिक आभार !! टिप्पणी से रचना की सार्थकता बड़ी है शुक्रिया !!

Comment by Veerendra Jain on June 21, 2011 at 2:13pm

सभ्यताओं के शहर हैं
और कितने उधड़े हम ,
आओ खुद को बेचें
खरीदार बहुत हैं !

 

waah waah..bahut hi sunder kataaksh kiya hai aapne ...Arun ji..bahut bahut badhai aapko..

Comment by प्रदीप सिंह चौहान on June 21, 2011 at 12:27pm
सभ्यताओं के शहर हैं
और कितने उधड़े हम ,
आओ खुद को बेचें
खरीदार बहुत हैं !

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