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काम काव्य -1

..

.
आदम
ईव

या
मैं
तुम
जैसे
मेघ
धरा .
धरा प्यासी
व्याकुल बैचैन
मेघ लिये
बिना निंद्रा नैन
नारी सम तन
गुलाब सम कोमल
विचलित सा मन
देह जैसे अम्बु निर्मल
काया छरहरी
रंग मरमरी
रूप लावण्य बेमिसाल
मस्त हिरनी सी चाल
लघु जलद अंश
बन दस्त
हुए मदमस्त
चिपक गए देह से
आत्मिक नेह से
धरा पर .
दस्त चाल कपोलों
से
ग्रीवा
से
उतर चिपक गयी
नर्म गोल विस्फोटकों से ...
एक उच्छ्वास ...
गहरा सांस ..
कपित धरा ..
आतुर मेघ अंग अंश ( अंगुलियाँ )
सरकती मंद मंद
कटी प्रदेश पर
रुकी
फिर चली ...
सुकोमल सुडोल गोल द्विपर्वत
आरोहण को
पहुंच नापती गोलाई
अंगुलियाँ नांच नांच इठलाई
हथेली के आलिंगन को
झुट्लाती ,
स्वयं इतराती ,
नापती ऊंचाई
व गहराई
पर्वत से खाई
मदमस्त मेघ जोश
बिखरता धरा होश
मदमस्त आगोश ...
व्याकुल धरा
उपास्थि
धुरी आरोहण कर घूमी
मेघ की लब कपोल चूमी
परम वेग
प्रचंड संवेग
उभय मर्दन आज
मानों जंगल राज
सिस्की चितकारी
पूर्णता की खुमारी
मेघ जीवन भरा
जीव बीज ज्यों धरा
प्रफुल्लित हुई धरा
तृप्त कोख
विस्मित मन
विद्युत सा
तन संकुचन
शिथिलन...
अब धरा की आई बार ...
स्निग्ध रस लिये तैयार
करती मेघ पर बौछार
कण कण स्पंदन
बीजारोपण अभिनन्दन ...
.
.
आकर्षण
समर्पण
सृष्टी संचरण .

रचयिता : डा अजय कुमार शर्मा .

Views: 471

Comment

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Comment by Dr Ajay Kumar Sharma on March 7, 2012 at 9:52pm

सादर आभार .


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on January 6, 2012 at 11:21am

काम जैसे विवादास्पद विषय पर बहुत ही शालीन अंदाज़ में अपनी बात कही है. बधाई स्वीकार करें.

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"वाह..बहुत ही सुंदर भाव,वाचन में सुन्दर प्रवाह..बहुत बधाई इस सृजन पर आदरणीय अशोक जी"
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