आँखों देखी – 16 वॉल्थट में वह पहली रात !
“थुलीलैण्ड” में क्रिसमस की पूर्व संध्या का अनुभव यादगार बनकर रह गया हमारे मन में. अगले दो दिनों में हेलिकॉप्टर द्वारा कई फेरों में आवश्यक सामग्री जहाज़ से शिर्माकर स्थित भारतीय शिविर, जिसे नाम दिया गया था ‘मैत्री’, तक पहुँचा दिया गया. 27 दिसम्बर 1986 के दिन ‘मैत्री’ को पूरी तरह रहने योग्य बनाकर छठे अभियान के ग्रीष्मकालीन दल के हवाले कर दिया गया. विभिन्न वैज्ञानिक कार्यक्रमों को इसी शिर्माकर ओएसिस में अथवा मैत्री को आधार बनाकर आसपास के क्षेत्र में पूरा करना था. हम भूवैज्ञानिकों को मैत्री से 100 कि.मी. दक्षिण में वॉल्थट पर्वतमाला के पीटरमैन श्रेणी में अस्थायी शिविर लगाकर अपना काम करना था.
जब 6 जनवरी 1987 की सुबह मैत्री से हम लोगों ने MI-8 हेलिकॉप्टर में बैठकर पीटरमैन श्रेणी के लिये यात्रा प्रारम्भ की, ठीक एक साल पहले की उस भयंकर रात की यादें अनायास ही मन में सजीव हो उठीं.......
जनवरी 1986 में हम चार भूविज्ञानी और भारतीय वायुसेना के एक डॉक्टर अपना सामान बाँधे दो दिन से मैत्री में बर्फ़ीले तूफ़ान के रुकने की प्रतीक्षा कर रहे थे. हमारा उद्देश्य था वॉल्थट पर्वतमाला के ग्रुबर नामक स्थान में शिविर लगाना और वहाँ रहकर वॉल्थट का भूवैज्ञानिक मानचित्र बनाना. उस क्षेत्र से जो भी भूवैज्ञानिक तथ्य उस समय तक उपलब्ध थे वे मुख्यत: रूसियों द्वारा रिमोट सेंसिंग की सहायता से किए गए काम के आधार पर प्रस्तुत कुछ शोध पत्रों में ही सीमित थे. उस दुर्गम स्थान में लम्बे समय तक रहकर विस्तारित भूवैज्ञानिक मानचित्रण का दुरूह कार्य किसी ने भी नहीं किया था. भारत की इस पहल से स्वयं रूसी भी चकित थे और उनकी सकारात्मक व नकारात्मक हर प्रकार की प्रतिक्रिया मिल रही थी.
हमने कम से कम एक महीने के लिए पर्याप्त मात्रा में भोजन सामग्री, आवश्यक तम्बू और स्लीपिंग बैग, दवा आदि ले लिए थे. दो दिन की प्रतीक्षा के बाद तूफ़ान का वेग कुछ कम हुआ. हमें लग रहा था शायद अगले दिन हम मैत्री से ग्रुबर के लिए उड़ान भरेंगे लेकिन उस शाम दलनेता से निर्देश आया कि हम एक घंटे के अंदर मैत्री के हेलिपैड पर सब सामान लेकर तैयार रहें. मौसम बहुत थोड़े समय के लिए खुलने वाला था और फिर कई दिनों के लिए बुरी तरह ख़राब होने के संकेत थे. हमारे दलनेता (5वें अभियान के) स्वयं भूविज्ञानी थे. वे चाहते थे कि जल्दी से जल्दी ग्रुबर में काम शुरु कर दिया जाए. अंटार्कटिका में ख़राब मौसम का असर सबसे अधिक समुद्र के किनारे होता है. ग्रुबर समुद्र किनारे से 200 कि.मी. दूर है. अत: एक बार ग्रुबर में कैम्प लग जाए तो मौसम की परवाह किए बगैर हम लोग अपना काम कर सकते हैं. इसीलिए दलनेता ने 5-6 घण्टे के समय का, जब तूफ़ान शिथिल होने वाला था, पूरा फ़ायदा उठाने का सोचा.
रात आठ बजे के बाद तेज़ हवा के बीच MI-8 मैत्री पहुँचा. चूँकि सामान काफ़ी था, हम सब को मिलाकर 10-15 लोग थे, हवा अभी भी तेज़ थी और हेलिकॉप्टर को मैत्री-ग्रुबर-मैत्री यह 200 कि.मी. की उड़ान बिना refueling किए भरनी थी – यह तय किया गया कि कुछ सामान लेकर दलनेता, मेरे चार साथी और हेलिकॉप्टर से सम्बद्ध लोग पहले ग्रुबर जाएँगे. उन्हें वहाँ छोड़कर, वापस आकर MI-8 तेल भरने के बाद मुझे बाकी सामान के साथ ग्रुबर पहुँचा देगा.
रात के लगभग एक बजे जब हम लोग उस जगह पर पहुँचे जहाँ दलनेता और मेरे अन्य चार साथी पहले फेरे में आए थे, हवा इतनी तेज़ थी कि हेलिकॉप्टर को ज़मीन पर उतारना नामुमकिन था. सामान के बंडल तो ऊपर से लुढ़का दिये गए. फिर एक रस्सी के सहारे मैं नीचे उतरा. हेलिकॉप्टर को एक जगह रोककर रखने में पायलट को बहुत कठिनाई हो रही थी. जिस रस्सी के सहारे मैं नीचे उतरा उसी को पकड़कर दलनेता हेलिकॉप्टर में चढ़ गए और वह गर्जन करता हुआ तेज़ी से जहाज़ की ओर चला गया. रह गए हम चार भूविज्ञानी और एक डॉक्टर. तम्बू लगा दिया गया था लेकिन वह हवा में बुरी तरह फूल रहा था. तापमान शून्य से लगभग 20 डिग्री नीचे था, हम सब जमे जा रहे थे. जूता, मोजा, अंटार्कटिक सूट से लैस हम अपने-अपने स्लीपिंग बैग में घुस गए. शरीर बेहद थका हुआ था लेकिन हवा की भयंकर गति और उससे उत्पन्न आवाज़ के कारण नींद नहीं आ रही थी. डॉक्टर लगातार हमसे मोज़े के अंदर पैर चलाने के लिए कह रहे थे जिससे रक्त-संचार बना रहे.
एक घण्टा भी नहीं बीता था – देखते ही देखते तम्बू के कील उखड़ने लगे और हम सीधे हवा की चपेट में आ गए. एकमात्र खम्भे के सहारे खड़े तम्बू पर अब भरोसा करना व्यर्थ था. हमारे स्लीपिंग बैग भी इतने छोटे थे कि शरीर का एक तिहाई अंश बाहर ही था. हम सब फिर से अपने पैरों पर आ गए और अपना-अपना स्लीपिंग बैग उठाकर किसी बड़े पत्थर की आड़ ढूँढ़ने के लिए चल पड़े. हवा का वेग 45 नॉट अर्थात 81 कि.मी. प्रति घण्टा था और तापमान माईनस 20 से माईनस 25 डिग्री सेल्सियस के आसपास. एक-एक कदम उठाना इतना कष्टदायी था कि वर्णन करना असम्भव है. हवा ने कम से कम दो बार मुझे ज़मीन से ऊपर उठा दिया था. कुछ दूर पश्चिम की ओर जाने के बाद भी जब कोई प्राकृतिक आश्रय नहीं मिला मैंने और मेरे दो साथियों ने जहाँ खड़े थे वहीं लेट जाने का निर्णय लिया. बाकी दो साथी बहुत हिम्मत दिखाकर उस अनजान वीराने में हवा से बचने के लिए उपाय ढूँढ़ने और आगे बढ़ गए. हमें लग रहा था हमारे जीवन की वही आखरी रात थी. मैं अपना सुध-बुध खोने लगा था – शायद बाकी दोनो साथियों का भी वही हाल था. दो घण्टे बाद हमारे बहादुर साथी वापस आ गए इस समाचार के साथ कि दूर दूर तक कहीं भी हवा से बचने का कोई साधन नहीं है.
------ मुझे क्या हुआ था पता नहीं ------- शायद मैं बेहोश हो गया था या बहुत गहरी नींद में खो गया था. जब आँखें खुलीं तो कुछ देखने से पहले कानों को सुनाई दिया ‘थैंक गॉड’. डॉक्टर मेरे चेहरे पर झुके हुए थे. मेरे पलकों पर, नाक में और ऊपरी शरीर में सूट पर बर्फ़ था. हवा बिल्कुल थम गयी थी और तेज़ धूप थी. स्पष्टत: मौसम पूरी तरह साफ़ हो गया था. पता चला कि डॉक्टर सबसे पहले उठे और उन्होंने एक-एक को जगाया. मेरे बारे में उन्हें चिंता थी क्योंकि मुझमें जीवन के लक्षण क्षीण होते लग रहे थे. इसीलिए मुझे आँख खोलते देख उनके मुँह से निकला था ‘थैंक गॉड’
हम सब उठकर एक जगह बैठ गए – शरीर शक्तिहीन हो रहा था. हम जहाँ बैठे थे उसके उत्तर में 100 कि.मी. तक केवल बर्फ़ ही बर्फ़ था जिसके उस पार शिर्माकर ओएसिस में हमारा आधार शिविर ’मैत्री’ था. वहाँ से भी 100 कि.मी. उत्तर में शेल्फ़ आईस के किनारे जहाज़ ‘थुलीलैण्ड’ खड़ा था. हम समुद्रतल से लगभग साढ़े तीन हज़ार फीट ऊपर बैठे हुए थे. हमारे दक्षिण में दस हज़ार फीट ऊँची चोटी लेकर ग्रुबर श्रेणी का विशाल विस्तार था. हमारे पास रेडिओ सेट नहीं था. रात में तेज़ हवा ने हमारा सारा सामान एक बहुत बड़े क्षेत्र में फैला दिया था. हमारे तम्बू के चिथड़े हो गए थे. जहाँ तम्बू लगाया गया था वहाँ से हम क़रीब 600 मीटर दूर बैठे थे. हम इतने शक्तिहीन हो गए थे कि बात करना भी कठिन हो गया था. तभी डॉक्टर ने समझाया कि यदि डिहाइड्रेशन को तुरंत दूर न किया गया तो सभी का जीवन संशय हो सकता है.
डॉक्टर का आदेश और आग्रह अथवा जीने की स्वाभाविक चाह – कारण जो भी हो हम सब लड़खड़ाते कदमों से चल दिए अपने को बचाने की अंतिम कोशिश में. हमारे पैरों के नीचे हज़ारों बोल्डर थे और उसके नीचे ग्लेशियर. बोल्डरों के कारण दूर से सामान पहचानने में कठिनाई हो रही थी. सौभाग्य से एक पैकेज मिला जिसके अंदर ‘रसना’ के आम के रस के एक लिटर वाले बारह डब्बे थे. रस के आंशिक जम जाने के कारण डब्बे फूल गए थे. पानी कहीं मिलने का प्रश्न ही नहीं उठता था. एक जियोलॉजिकल हैमर से डब्बों में बड़े बड़े छेद किए गए और जितना रस मिला सीधे गले में डाल दिया गया. रसपान ने संजीवनी का काम किया. हमारे पैरों में ताक़त अनुभव करते ही इंद्रिय सजग हो गए. डॉक्टर ने कहा कि सबसे पहले आवश्यक है गैस चूल्हा, गैस सिलिंडर और गैस लाईटर ढूँढ़कर सम्भाल कर रखना. फिर बर्फ़ गलाकर गर्म पानी पीना और हो सके तो चाय. अगले आधे घण्टे में घूम-घूम कर हम लोगों ने इन चीज़ों को इकट्ठा किया. जब गैस जलाने गए तो वह जला ही नहीं. वास्तव में द्रवीय गैस सिलिंडर के अंदर जम गयी थी. इसका भी उपाय निकाला गया. एक कम्बल में सिलिंडर को लपेट कर हम सब लोग पैर और हाथ से उसे बोल्डरों के ऊपर लुढ़काते रहे. कुछ देर की मेहनत के बाद आख़िर गैस जल ही गयी. आईस ऐक्स से बर्फ़ तोड़कर, पानी बनाकर फिर हमने जो चाय पी थी उसका स्वाद कभी भुलाया नहीं जा सकता.
दोपहर का शायद एक बजा था जब अचानक हमें उत्तर की ओर से आती परिचित आवाज़ सुनाई दी. MI-8 आ रहा था. दूर आसमान में एक नारंगी बिंदु इस बात का प्रमाण था. हमने उठकर जल्दी-जल्दी एक जगह को इतना साफ़ किया कि हेलिकॉप्टर उतर सके. तब तक वह उस जगह पहुँच गया था जहाँ पिछली रात तम्बू लगाया गया था. लेकिन ऊँचाई से ही रात में हुई तबाही का नज़ारा दलनेता और पायलटों ने देख लिया. वे बार बार उस स्थान के ऊपर चक्कर लगा रहे थे, हमें ढूँढ़ने की कोशिश कर रहे थे लेकिन बोल्डर होने के कारण उतर नहीं पा रहे थे. 600 मीटर दूर हम अपने नारंगी विंड चीटर जैकेट हाथ में लिए जोर-जोर से हिला रहे थे उनका ध्यान खींचने के लिए. दो लोग तम्बू की ओर बढ़ने भी लगे. तभी हेलिकॉप्टर कुछ ऊपर उड़ गया – हमने सोचा कि वे वापस जा रहे हैं. निराश, हताश हम अपना जैकेट हवा में उछालने लगे. उसी समय उन्होंने हमें देख लिया और दो सेकंड में ठीक हमारे ऊपर आ गए. कुछ देर पहले बनाए हुए अस्थायी हेलिपैड पर वे सुरक्षित उतरे.
बीती रात से हुई सारी घटना की जानकारी पाकर वे सब स्तब्ध रह गए. उन्होंने हमसे कहा कि वे हमारे लिए बहुत चिंतित थे. सुबह मौसम साफ़ होते ही जहाज़ से चल पड़े थे. जब उस तबाही के बीच हम नहीं दिखे तो वे आशंकित हो उठे थे और आधार शिविर में हेलिकॉप्टर के रेडिओ द्वारा आवश्यक निर्देश भेज दिए गए थे. दलनेता ने हमारे सुरक्षित रहने की जानकारी देते हुए फिर से कुछ निर्देश जारी किए आधार शिविर और जहाज़ में. सब लोगों ने मिलकर सामान एक जगह एकत्रित कर उनका निरीक्षण किया. लगभग डेढ़ घण्टे बाद दूसरा MI-8 आता दिखाई दिया. उसमें नया तम्बू, रस्सी (mountaineering rope), नए अंटार्कटिक सूट, नए ‘अन्नपूर्णा’ स्लीपिंग बैग आए थे हम लोगों के लिए. साथ ही दो और डॉक्टर स्ट्रेचर और दवा आदि लेकर आए थे. सबसे महत्वपूर्ण था रेडिओ सम्पर्क बनाने हेतु सारी व्यवस्था लेकर नौसेना के दो तकनीकी विशेषज्ञों का आना. मैत्री के रसोई से गर्म खाना और कॉफ़ी भेजा गया था हम सब के लिए.
सुबह जहाँ प्राण बचेंगे या नहीं इस बारे में संशय था वहाँ अब पिकनिक का माहौल था. देखते ही देखते नया तम्बू लगाया गया तथा ग्रुबर कैम्प के साथ मैत्री और जहाज़ का रेडिओ सम्पर्क स्थापित किया गया. देर शाम हम पाँच लोगों को कैम्प में छोड़कर बाकी सब अपनी-अपनी जगह चले गए. इसके बाद वहाँ लगभग एक महीने रहकर हमने 900 वर्ग कि.मी. क्षेत्र का भूवैज्ञानिक मानचित्रण किया जो अपने आप में एक कीर्तिमान था.
इस अनुभव से हमें सीख मिली कि आपत्ति आए तो उससे जूझना चाहिए, पीठ दिखाकर भागने में कोई बुद्धिमानी नहीं है. दलनेता का हमारी क्षमता पर विश्वास, उनके दृढ़ निश्चय और दूर दृष्टि के कारण ही भारत वॉल्थट पर्वत के भूवैज्ञानिक मानचित्रण के क्षेत्र में सशक्त कदम उठाने में सफल हुआ था. अब तक विश्व को भारत ने वॉल्थट पर्वत माला के 19000 वर्ग कि.मी. का भूवैज्ञानिक मानचित्र उपलब्ध कराया है जो भारतीय अभियानों के अभूतपूर्व सफलता का साक्षी है. यही कारण है कि मेरे लिए इस संस्मरण में वर्णित विस्मृत यादें ऐतिहासिक महत्व रखती हैं.
(मौलिक तथा अप्रकाशित सत्य घटना)
Comment
इस कड़ी में वर्णित ज़िन्दग़ी के साथ हो रहे उत्थन-पतन को जिस जतन के साथ प्रस्तुत किया गया है वह पूरे पाठ को रोचक तो बनाता ही है, इस पंच-लाइन के साथ समाप्त होता है - आपत्ति आए तो उससे जूझना चाहिए, पीठ दिखाकर भागने में कोई बुद्धिमानी नहीं है.
आपकी प्रस्तुतियों की इस कड़ी के लिए हृदय से धन्यवाद, अदरणीय शरदेन्दुजी.
सादर
रोमांचकारी! कुछ देर के लिए मैं भी घटना स्थल पहुँच गया! आपको बहुत-बहुत बधाई!
आदरणीय शरदिन्दु भाई , बड़ा ही रोमांचक अनुभव सुनाया आपने , बहुत बहुत आभार रोमांच का हिस्सा बनाने के लिये !!
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