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आंखों देखी – 15 बैरागी अभियात्री, साधारण इंसान

आंखों देखी – 15  बैरागी अभियात्री, साधारण इंसान

     आसमान में बादल थे लेकिन दृश्यता (visibility) अच्छी होने के कारण छठे अभियान दल के दलनेता ने दक्षिण गंगोत्री आने का निर्णय लिया. नियमानुसार, जहाज़ के अंटार्कटिका पहुँचने के साथ ही अभियान की पूरी कमान नए दल के दलनेता के हाथों आ जाती है हालाँकि वे हालात के अनुसार लगभग सभी निर्णय शीतकालीन दल के स्टेशन कमाण्डर के साथ विचार-विमर्श करने के बाद ही लेते हैं. शिष्टाचार के अतिरिक्त इसका मुख्य कारण है शीतकालीन दल का विशाल अनुभव जो वे पिछले एक साल में अंटार्कटिका में रहकर अर्जित करते हैं.
 

     हमने नए अभियान दल के स्वागत में एक बहुत बड़ा गुब्बारा फुलाकर, उसके साथ WELCOME लिखकर स्टेशन के प्रवेश द्वार के पास बाँध दिया था. जहाज़ से उनके चलने के पहले हमसे कहा गया कि हमें किसी विशेष वस्तु की तुरंत आवश्यक्ता हो तो सूचित करें ताकि वे हेलिकॉप्टर की पहली उड़ान में ही उसे अपने साथ ला सकें. हमारी मात्र दो माँगें थीं – सभी सदस्यों के लिए उनके नाम लाए गए व्यक्तिगत पत्र और चार-पाँच किलो हरी मिर्च. मैं समझता हूँ इससे हमारे तत्कालीन जीभ के स्वाद और मन की बेताबी का सहज अनुमान लगाया जा सकता है. जब तक वे दूर थे कोई भी कष्ट हमारे लिए कष्ट नहीं था, हमें किसी वस्तु की आवश्यक्ता नहीं थी – हमारे लिए स्वच्छ, पवित्र नीले आकाश और सफ़ेद बर्फीले रेगिस्तान का आलिंगन था जहाँ हमें ज़िंदगी की नयी परिभाषा मिली थी. जैसे-जैसे अपनों का कोलाहल हमारे पास आता गया सांसारिक सुख-सुविधाओं की कृत्रिमता का रंग हमारी मानसिकता पर अप्रतिरोध्य ढंग से चढ़ने लगा.

     दक्षिण गंगोत्री से जहाज़ की दूरी लगभग 50 कि.मी. थी. हेलिकॉप्टर से 10-15 मिनट लगना था इसे तय करने में. अत: जैसे ही समाचार मिला कि नए दल के कुछ सदस्य आ रहे हैं, हम सब स्टेशन के बाहर उनके स्वागत में एकत्रित हो गए. अंटार्कटिका में जब हवा नहीं चलती है तो एक अजीब सा सन्नाटा रहता है और अन्यमनस्क रहने से प्राय: अपने साँस लेने की मृदु आवाज़ भी चौँका देने वाली होती है. 23 दिसम्बर 1986 का वह दिन भी बिल्कुल शांत था. हवा रुकी हुई थी. आसमान में बादल होने के कारण ज़मीन की बर्फ़ भी मटमैली दिख रही थी. महाशून्य से आने वाली पराबैंगनी (ultraviolet या UV) किरणों का ज़बरदस्त प्रभाव था. फिर भी हम बड़े-बड़े स्नो-गॉगल्स के पीछे से टकटकी लगाए उत्तर दिशा की ओर देख रहे थे. जैसा कि हमेशा होता है, पहले हमें हेलिकॉप्टर की आवाज़ सुनाई दी, फिर शीघ्र ही एक काला बिंदु और उसके पीछे नारंगी चिड़िया दिखाई दी. थोड़ी ही देर में भारतीय नौसेना का गहरे नीले रंग का छोटा सा हेलिकॉप्टर “चेतक” अभियान दल के नेता को लेकर दक्षिण गंगोत्री के सामने बर्फ़ पर उतरा. उसके तुरंत बाद भारतीय वायुसेना का नारंगी रंग का MI-8 अपना विशाल शरीर लेकर अंटार्कटिका के नर्म बर्फ़ को उड़ाता हुआ आ बैठा. इस घड़ी का वर्णन करना मेरे लिए सम्भव नहीं – सुधी पाठक अपनी सोच, कल्पना और संवेदनशीलता द्वारा स्वयं अनुभव करने का प्रयत्न करें.

     MI-8 में नए दल के 15-16 सदस्य अपने साथ हमारे लिए पत्र, समाचार पत्र, पत्रिकाएँ, पुस्तकें, ताजे फल, हरी सब्ज़ी, कुछ आवश्यक दवाईयाँ और हाँ....हमारी फ़रमाईश मुताबिक हरी मिर्च की एक बोरी लेकर आए थे. जो हमारे पूर्व परिचित थे उनके तो कहने ही क्या, जो सम्पूर्ण अपरिचित थे वे भी हमसे ऐसे मिले मानो हम उनके बहुत ही सगे, घनिष्ठ पारिवारिक सदस्य हों और युगों से बिछुड़े रहने के बाद पृथ्वी के निर्जनतम छोर पर अचानक आ मिले हों. हम सबको लेकर स्टेशन के अंदर गए और चाय नाश्ते के साथ ही बातचीत का सिलसिला चल पड़ा. जिन्हें अंटार्कटिका का अनुभव था लेकिन शीतकालीन अंटार्कटिका का नहीं वे हमसे लगातार प्रश्न पूछ रहे थे. जिन्होंने पहली बार अंटार्कटिका देखा वे अवाक हो सुन रहे थे – कुछ सच, कुछ उत्तेजना वशत: सम्पूर्ण काल्पनिक; कुछ सम्भव, कुछ असम्भव घटनाओं का अति उत्साहपूर्ण वर्णन. मैं चकित हो देख रहा था मानव, “शिक्षित और सभ्य” मानव कितने सहज ढंग से विशेष परिस्थिति में अपनी विशिष्टता की प्रदर्शनी लगाने को व्याकुल हो उठता है!

     सामान्य शिष्टाचार निभाने के साथ जैसे ही औपचारिकता की आँधी धीमी पड़ने लगी मैं अपने घर से भेजे गए सामान का बैग लेकर अपने केबिन के बंक पर जाकर बैठ गया. सबसे पहले पत्रों का बण्डल उठाया. मेरी बहन का लिखा 38 पृष्ठों का पत्र, जो पूरे साल भर में विभिन्न समय पर घटती घटनाओं के साथ-साथ लिखा गया था, एक असाधारण दस्तावेज था. मेरी माँ ने भी, जो आमतौर पर पोस्ट-कार्ड में तीन-चार लाईन ही लिखती थीं, आठ पृष्ठों का पत्र भेजा था जो उनकी ममता, वात्सल्य, अपने पुत्र के कर्मों के लिए नि:संकोच गर्व और उससे बहुत-बहुत दिन हुए दृष्टि से ओझल रहने की पीड़ा का मार्मिक चित्रण था. मैं उन्हें पढ़ते हुए खो गया – एक बैरागी अभियात्री में पुन: एक साधारण इंसान के असाधारण संवेदन का कम्पन प्रस्फुटित होने लगा.

     जहाज़ के कप्तान और अभियान दल के नेता का आमंत्रण स्वीकार करते हुए अगले दिन, अर्थात 24 दिसम्बर 1986 को हम दस-बारह लोग जहाज़ में गए और वहाँ क्रिसमस की पूर्व संध्या में जश्न मनाया गया. समारोह के बीच ही आने वाले दिनों में विभिन्न वैज्ञानिक कार्यक्रमों को किस प्रकार सफलतापूर्वक उनके अंजाम तक ले जाया जा सके, इस बारे में बहुत गम्भीरता से और विस्तार में विचार-विमर्श हुआ. हमारे कार्य संस्थान – भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण – ने छह सदस्यों का एक बड़ा दल भेजा था महत्त्वपूर्ण अनुसंधान हेतु. इस दल में हमारे निदेशक भी थे जो अपनी पद मर्यादा के कारण अभियान दल के उपनेता चुने गए थे. उन्होंने प्रस्ताव रखा था कि मैं और मेरे वरिष्ठ साथी, यदि चाहें, तो जहाज़ में आराम कर साल भर की थकान उतार सकते हैं – हमें उन सबके साथ वॉल्थट पर्वत के दुर्गम क्षेत्र में जाने की कोई मजबूरी नहीं है. कहना आवश्यक नहीं कि हम दोनों ने यह प्रस्ताव तुरंत ठुकरा दिया था. वॉल्थट पर्वत में हमें जाना ही था केवल इस लिए नहीं कि हमारे पैर अस्थिर हो रहे थे कठोर और कठिन फ़ील्ड-वर्क करने के लिए, इस लिए भी नहीं कि हमारे बिना दूसरों को कोई विशेष असुविधा हो सकती थी अपितु इसलिए कि एक साल पहले वॉल्थट में जो अनोखा अनुभव हुआ था उसकी याद ताज़ी होकर हमें बरबस इस क्षेत्र की ओर आकर्षित कर रही थी. क्या था वह अनोखा अनुभव ? ....अगले अंक में बताऊँगा....

(मौलिक तथा अप्रकाशित सत्य घटना)

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 30, 2014 at 11:45pm

सत्य कहूँ तो आज आपके इस पोस्ट पर आ पाया हूँ तो विलम्ब के कारण अत्यंत ग्लानि है. लेकिन पूरा पढ़ जाने के बाद अगले अंक पर जाने की इच्छा बलवती हो गयी है.  जो पहले से ही पोस्ट हो चुका है.
हाँ, इस पंक्ति से मानों तो दिल खुश हो गया है - एक बैरागी अभियात्री में पुन: एक साधारण इंसान के असाधारण संवेदन का कम्पन प्रस्फुटित होने लगा.
स्वविवेचना इससे बेहतर और क्या हो सकती है !
और, एक बोरा मिर्ची.. :-)))
होता है, ऐसा ही होता है. सहज उपलब्ध वस्तुओं की सही कीमत हमें मालूम नहीं होती जबतक लाले न पड़ने लगें. मुझे अपने बचपन में सरलता और बहुतायत से उपलब्ध पानी का उदाहरण सामने है. तब हम यह पढ कर चकित हो जाया करते थे कि कई देशों में पीने का पानी बिकता है. आज हम स्वयं जल खरीदते हैं. पानी की कीमत मुझे चेन्नै प्रवास के दौरान मालूम पड़ी थी. तब चेन्नै में शतप्रतिशत वाटर-हार्वेस्टिंग लागू नहीं हुआ था.
सादर

Comment by vijay nikore on April 15, 2014 at 7:39am

अंक १५ भी सभी अंकों के समान ज्ञानवर्धक है। आपका हार्दिक धन्यवाद, और आपको बधाई।

Comment by बृजेश नीरज on April 11, 2014 at 7:30pm

बहुत ही सुन्दर और रोचक वर्णन! आपको बहुत-बहुत बधाई!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 11, 2014 at 8:49am

बहुत सुन्दर रोचक वर्णन अगले अंक की प्रतीक्षा है 

कृपया ध्यान दे...

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