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तरही ग़ज़ल नं-3 "मुसहफ़ी" की ज़मीन में

मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन

बयाँ कैसे करूँ क्या उसकी अंगड़ाई का आलम था
तसव्वुर में न आए ऐसा ज़ैबाई का आलम था

बस इक नुक्ते प आकर रुक गई थी ज़िन्दगी मेरी
न वो वहशत का आलम था न दानाई का आलम था

कोई सुनता भी कैसे एक शाइर की सदा भाई
वतन में हर तरफ़ हंगामा आराई का आलम था

अँधेरे में गिरी सुई भी हम तो ढूँढ लेते थे
जवानी में तो कुछ ऐसा ही बीनाई का आलम था

ग़ज़ल कहने का मौक़ा ख़ूब हम को मिल गया यारों
नहीं था घर में कोई सिर्फ़ तन्हाई का आलम था

पस-ए-मुर्दन दर-ओ-दीवार घर के सब सुना देंगे
कि तेरे हिज्र में क्या तेरे सौदाई का आलम था

जिसे हम शाइरी कहते हैं मुश्किक से मिली हम को
"समर" दुनियाए फ़न में भी तो मंहगाई का आलम था
-------

ज़ैबाई :- ख़ूबसूरती
तसव्वुर :- ख़याल
नुक्ता :-पॉइंट
वहशत :- दीवानगी
दानाई :- अक़्लमंदी
बीनाई :- देखने की शक्ति
पस-ए-मुर्दन :- मरने के बाद
हिज्र :- विरह
सौदाई :- दीवाना

"समर कबीर"
मौलिक/अप्रकाशित

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 18, 2015 at 7:35pm

आ० समर कबीर साहिब . बहुत खूब गजल कही

ग़ज़ल कहने का मौक़ा ख़ूब हम को मिल गया यारों
नहीं था घर में कोई सिर्फ़ तन्हाई का आलम था
 जिसे हम शाइरी कहते हैं मुश्किक से मिली हम को
"समर" दुनियाए फ़न में भी तो मंहगाई का आलम था
-------

Comment by Jayprakash Mishra on October 18, 2015 at 12:57pm
Kya khoob gazal kahi hai Zanab Samar kabeer saahab

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