For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

राम-रावण कथा (पूर्व-पीठिका) 31

कल से आगे ...............

वेद बड़े उहापोह में था। किस प्रकार बात करे वह गुरुजी से मंगला के विषय में। गुरुदेव क्रोधी स्वभाव के कदापि नहीं थे तो भी उसकी हिम्मत नहीं पड़ रही थी। वह नित्य प्रातः निश्चय करता कि आज मध्यान्ह में भोजन के समय अवश्य ही गुरुदेव से पूछेगा किंतु मध्यान्ह से साँझ पर टल जाता और साँझ से पुनः अगली प्रातः पर। अंततः एक दिन उसने निश्चय किया कि अब कोई सोच-विचार नहीं करेगा बस सीधे जाकर गुरुजी से पूछ लेगा, फिर जो होगा देखा जायेगा। नहीं पूछेगा तो फिर घर जाते ही मंगला चिक-चिक करेगी।


वह उठा, आश्रम में देखा - गुरुजी कहीं नहीं थे। वह वाटिका की ओर निकल गया। वहाँ आम के वृक्षों के झुरमुट में गुरुजी उसे दिखाई दे गये। वह गया और जाकर सीधे गुरु जी के पीछे, कुछ पगों की दूरी पर हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया। गुरु जी महामात्य जाबालि से बात कर रहे थे। उसने फिर सोचा कि इस समय उचित नहीं है, इस समय पता नहीं गुरु जी महामात्य से क्या आवश्यक चर्चा कर रहे हों, जब अकेले होंगे तब बात करेगा।


वह लौटने ही वाला था कि महामात्य ने उसे देख लिया। उन्हें लगा कि वह इस प्रतीक्षा में है कि वार्तारत गुरुजनों का ध्यान उसकी ओर घूमे तो वह अपनी बात कहे। उन्होंने गुरुदेव का ध्यान इशारे से उसकी ओर आकर्षित किया।
‘‘कहो वत्स वेद, कोई शंका है ?’’ गुरुदेव ने उसे देख कर जानना चाहा।
अब वापस लौटने का कोई मार्ग नहीं था। उसने बढ़ कर दोनों गुरुजनों के चरणों की धूलि ली और फिर शान्ति से खड़ा हो गया।
‘‘आयुष्मान भव !’’ गुरुदेव ने कहा। जाबालि ने भी उसके सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया।
‘‘हाँ बोलो वत्स !’’ गुरुदेव ने उसके संकोच को समझते हुये स्नेह से उसे पूछने के लिये प्रोत्साहित करते हुये कहा।
‘‘गुरुदेव मेरी छोटी बहन को गुरुकुल में पढ़ने की बड़ी लगन है। मैंने जब उसे बताया कि शास्त्रों में बालिकाओं के लिये पढ़ना निषेध है तो वह हठ करने लगी कि किस शास्त्र में लिखा है ऐसा ?’’ वेद एक ही साँस में पूरी बात कह गया। शायद उसे यह प्रश्न अपनी अनधिकार चेष्टा प्रतीत हो रहा था।
‘‘तो इसमें इतने संकुचित से क्यों हो रहे हो वत्स ! पहले बैठ जाओ, फिर संयत होकर बात करो। बहुत गंभीर प्रश्न है यह। बैठो-बैठो। संकोच मत करो।’’ गुरुदेव कुछ कहें इससे पहले ही जाबालि ने किंचित हास्य के साथ बात को लपक लिया। उन्होंने यह लक्षित कर लिया था कि वेद इस प्रश्न को बहन के दबाव में ही पूछ रहा है अन्यथा शास्त्रों पर किसी भी तरह की शंका उठाने भर से ही वह भयभीत है। उन्होंने पहले उसे इस भय से बाहर निकालने के लिये ही बात को हल्के-फुल्के ढंग से लेते हुये उसे बैठने को कहा। वह जब बैठ गया और थोड़ा सा संयत हुआ तो पुनः उन्होंने उससे प्रश्न किया -
‘‘पहले यह बताओ, कितना समय हो गया तुम्हें गुरुकुल में ?’’
‘‘जी आचार्य प्रवर तीन वर्ष।’’
‘‘अच्छा क्या-क्या पढ़ा अभी तक ?’’
‘‘जी ऋक् और यजुर्वेद पढ़ लिये हैं। सामवेद चल रहा है।’’
‘‘पूर्ण कंठस्थ हैं ?’’
‘‘जी !’’
‘‘और मनुस्मृति ?’’
‘‘अभी आरंभ नहीं हुयी।’’
‘‘नाम तो सुना होगा उसका।’’
‘‘जी ! सुना है।’’
‘‘मंत्रिवर ! वैश्यकुल से यह सबसे अच्छा विद्यार्थी है।’’ गुरुदेव वशिष्ठ जो अभी तक जाबालि और वेद के वार्तालाप को मुस्कुराते हुये सुन रहे थे, उन्होंने पहली बार वार्तालाप में हस्तक्षेप किया।
‘‘तो गुरुदेव इसकी शंका का समाधान कीजिये।’’ जाबालि ने भी गुरुदेव की ओर मुस्कुराते हुये देखते हुये कहा। ‘‘मेरी भी उत्सुकता है इस प्रश्न में। वेद ! अपनी बहन के लिये मेरा प्रणाम स्वीकार करो जिसने इतना महत्वपूर्ण प्रश्न उठाने का साहस किया है। धन्य है वह !’’
वेद जाबालि के इस कथन से फिर संकुचित हो गया। उसे समझ ही नहीं आया कि क्या जवाब दे। बस मंत्रिवर की ओर हाथ जोड़ कर रह गया।
‘‘वत्स ! अभी मंत्रिवर जिस मनुस्मृति की बात कर रहे थे उसी में यह निषेध किया गया है। शूद्रों और महिलाओं को अध्ययन की अनुमति नहीं है। वेदों के अध्ययन की तो कदापि नहीं। मनु महाराज ने कहा है कि विवाह ही स्त्रियों का उपनयन है और गृहस्थी के कार्य ही उनका वेदपाठ हैं।’’
वेद वैसे ही हाथ जोड़े सिर झुकाये बैठा था किंतु जाबालि चुप नहीं रहे वे बोल पड़े -
‘‘यह अन्याय नहीं है गुरुदेव ? यदि भगवती लोपामुद्रा, भगवती गार्गी आदि तमाम ऋषिकायें स्त्री होते हुये भी वेदों की रचना कर सकती हैं तो फिर स्त्रियाँ वेद पढ़ क्यों नहीं सकतीं।’’
‘‘मंत्रिवर ! प्रश्न न्याय-अन्याय का नहीं है।’’
जाबालि ने हाथ के इशारे से गुरुदेव को और कुछ कहने से रोकते हुये वेद की ओर मुड़ते हुये संकल्पित से स्वर में कहा -
‘‘वत्स अपनी बहन से कह देना कि गुरुकुल में भले ही उसके अध्ययन की व्यवस्था न हो सके किंतु यदि वह या और कोई भी कन्या पढ़ने की हिम्मत जुटा सके तो जाबालि के घर के कपाट उसके लिये सदैव खुले हैं। जाबालि उन्हें प्रत्येक विद्या सिखाने को तत्पर है। जाबालि की दृष्टि में जैसे सूर्य प्राणिमात्र के लिये उगता है वैसे ही ज्ञान का सूर्य भी बिना वर्ण या लिंग का भेद किये सबके लिये उगना चाहिये। जाओ अब - मेरा संदेश अपनी बहन तक पहुँचा देना। जानते तो हो न मुझे ?’’
‘‘जी, अयोध्या में आपका नाम कौन नहीं जानता। पहचानता नहीं था अभी तक सो दैव कृपा से आज पहचान भी लिया।’’
कहते-कहते वह उठ खड़ा हुआ। पुनः दोनों का चरण वंदन किया और आज्ञा लेकर चल पड़ा।

वेद तो चला गया किंतु गुरुदेव और जाबालि के बीच एक बहस को जन्म दे गया। उसके जाते ही जाबालि ने कहा -
‘‘हाँ गुरुदेव ! अब कहें, क्या कह रहे थे ? मैं नहीं चाहता था कि हमारी यह चर्चा उस बालक के सम्मुख हो। उससे उसके मन में अनुचित संदेश जाता।’’
‘‘मंत्रिवर ! प्रश्न न्याय-अन्याय का है ही नहीं। प्रश्न यह है कि क्या किसी उपकरण में, किसी यंत्र में या किसी भी निर्माण में कोई विशिष्ट अंग-उपांग या कोई विशेष वस्तु अपने निर्धारित स्थान के अतिरिक्त भी उचित कार्य कर सकती है। रथ का चक्र यदि धुरी के साथ समायोजित करने के स्थान पर कहीं और प्रतिस्थापित कर दिया जाये तो क्या रथ चल सकेगा ? यदि प्रत्येक ईंट यह आकांक्षा करने लगे कि वह नींव में नहीं, गुम्बद पर ही लगेगी तो क्या भवन स्थापित हो सकता है ? यही स्थिति समाज व्यवस्था में भी है। समाज के प्रत्येक अंग का अपना एक निर्धारित स्थान है। यदि उसे उस स्थान से हटा कर कहीं और समायोजित करने का प्रयास होगा तो सारी व्यवस्था चरमरा जायेगी।’’
‘‘गुरुदेव आपकी उपमायें मुझे नहीं लगता कि उचित हैं। जड़ अवयवों से बने किसी उपकरण या जड़ पदार्थों से बने किसी भवन से सचेतन मनुष्यों की तुलना नहीं की जा सकती। किसी उपकरण का कोई अवयव अपना कार्य स्वतः निर्धारित नहीं कर सकता, या स्वतः अपने कार्य को अधिक श्रेष्ठता से सम्पादित करने का प्रयास नहीं कर सकता। उसे तो जहाँ लगा दिया जाता है, बस वहीं अपनी स्वाभाविक विधि से स्थापित बना रहता है, कार्य करता रहता है। चेतन मानवों की स्थिति सर्वथा भिन्न है। उसमें अपने कार्य के - अपनी चूकों के अनुशीलन की क्षमता होती है, वह परिस्थितियों के अनुसार-आवश्यकताओं के अनुसार अपने कर्तव्यों का निर्धारण स्वयं कर सकता है। वह स्वतः निर्धारित कर सकता है कि उसके लिये क्या करणीय है और क्या नहीं। और गुरुदेव ! ज्ञान निश्चिय ही मानव की चेतना को और विकसित करता है। उसकी क्षमताओं में और निखार लाता है। उसे समाज को अपना सर्वश्रेष्ठ देने हेतु सक्षम बनाता है।’’
गुरुदेव ने कुछ पल मंद स्मित के साथ जाबालि के मुख पर दृष्टि गड़ाये रखी, जैसे किसी बच्चे के तर्कों का आनंद ले रहे हों। फिर बोले -
‘‘मंत्रिवर ! ज्ञान प्राप्त करने का निषेध कहाँ करते हैं हमारे शास्त्र ? वे तो मात्र यह निर्धारित करते हैं कि जिसे जिस प्रकार के ज्ञान की आवश्यकता है, वह उसी प्रकार का ज्ञान प्राप्त करे। प्रत्येक व्यक्ति तो सभी विषयों में पारंगत नहीं हो सकता न। यदि प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक प्रकार का ज्ञान प्राप्त करना चाहेगा तो उसे अन्यान्य विषयों का व्यावहारिक ज्ञान तो प्राप्त हो जायेगा किंतु जिस विषय में उसे पूर्ण निष्णात होना है उसमें वह अपूर्ण ही रह जायेगा। तब प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक कार्य को साधारण रूप से करने में तो समर्थ हो जायेगा किंतु कोई भी व्यक्ति किसी भी कार्य को सर्वश्रेष्ठ रूप से करने में समर्थ नहीं हो पायेगा।’’
‘‘किंतु गुरुदेव किसी भी व्यक्ति की क्षमताओं का पूर्ण परीक्षण किये बिना ही कोई यह कैसे निर्धारित कर सकता है कि उसे किस विद्या का अभ्यास करना चाहिये और उसमें पारंगत होना चाहिये ? यह तो ऐसे ही हो जायेगा कि जिसे प्रभु ने काव्य रचना के लिये संसार में भेजा हो उसके हाथों में हम शस्त्र थमा दें और जिसे प्रभु ने शस्त्र संचालन के लिये भेजा हो उसे हम काव्य रचना के लिये बाध्य कर दें। दोनों ही अपने कार्य को बिगाड़ने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर पायेंगे। शस्त्र हाथ में लिये वह सैनिक अपने ऊपर ही घात खा लेगा और लेखनी पकड़े वह काव्य-शास्त्री मात्र पृष्ठों को काला करने के कुछ नहीं कर पायेगा।’’
‘‘सिद्धांत रूप में आपका तर्क अच्छा है किंतु इसे कार्यरूप में परिणत कर पाना संभव नहीं है।’’
‘‘ऐसा आप कैसे कह सकते हैं ?’’
‘‘ऐसा करने के लिये सर्वप्रथम प्रत्येक बालक को प्रत्येक विषय की शिक्षा देनी होगी। यह शिक्षण-प्रशिक्षण ही उसकी आधी आयु को लील जायेगा, तब कहीं यह निर्धारित हो पायेगा कि वह किस कार्य के लिये अधिक योग्य है। उसके बाद उसे उस विशेष कार्य के लिये प्रशिक्षित किया जा सकेगा। इसमें भी एक लम्बा समय व्यतीत होगा। किसी भी व्यक्ति के लिये कुछ भी सीखने हेतु जो स्वर्णकाल होता है, वह उसका बचपन होता है। बच्चा जिस त्वरित गति से किसी भी विषय को आत्मसात करता है, एक वयस्क नहीं कर सकता। उसकी उस बाल्यावस्था को तो आप निरर्थक प्रशिक्षणों में गँवा देंगे। फिर इतने सारे प्रशिक्षकों की भी तो आवश्यकता होगी जो प्रत्येक बालक को ज्ञान की प्रत्येक विधा में दक्ष करने का प्रयास कर सकें। कहाँ से आयेंगे इतने प्रशिक्षक। पहले हम एक लम्बे समय तक उन व्यक्तियों को जो कुछ उत्पादक कार्य करते हैं, गदर्भों को अश्व बनाने के हास्यास्पद कार्य में व्यस्त रखेंगे तब यह निर्धारित कर पायेंगे कि इन 100 गर्दभों में मात्र एक अश्व बनने योग्य है शेष तो निरे गर्दभ के गर्दभ ही हैं। ये गर्दभ भी इतने वर्षों तक अपना कार्य सीखने के स्थान पर अश्व बनने की मृगमरीचिका में उलझे रहेंगे। ...’’
‘‘किंतु गुरुदेव ...’’ जाबालि ने कुछ कहना चाहा किंतु वशिष्ठ ने हाथ उठाकर उन्हें रोकते हुये अपनी बात जारी रखी -
‘‘और जब उन्हें बताया जायेगा कि वे अश्व बनने के योग्य नहीं हैं तो वे उस एक व्यक्ति से ईष्र्या करने लगेंगे जो योग्य पाया जायेगा। आपस में द्वेष भाव उत्पन्न हो जायेगा।’’
‘‘गुरुदेव स्थितियों को अधिक विकृत करके नहीं देख रहे आप ? इस बालिका की बात ही ले लीजिये। आप तो जानते ही हैं कि कितनी सारी ऋषिकाओं ने स्त्री होते हुये भी वेदों की सर्जना में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है किंतु इसे वेद अध्ययन की अनुमति नहीं है मात्र इस कारण से कि वह स्त्री है। यह विरोधाभास नहीं है ?’’
‘‘मंत्रिवर ! इसे तो आप भी मानेंगे ही कि व्यक्ति को अपने पूर्वजों से मात्र सम्पत्ति ही नहीं मिलती है उत्तराधिकार में, उसे उनकी योग्यतायें, उनके गुण-अवगुण भी प्राप्त होते हैं। जिन ऋषिकाओं का आप उदाहरण देना चाह रहे हैं उन सबको अपने महान पिताओं का तप और उनकी योग्यता उत्तराधिकार में प्राप्त हुई थी या हुई है। उनसे किसी सामान्य स्त्री की तुलना कैसे की जा सकती है ? एक स्त्री वेद पढ़कर वेदों का अधकचरा ज्ञान प्राप्त करे इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण है कि वह अपनी संतानों को अच्छे संस्कार देकर उन्हें योग्य बनाये। वेदों का अध्ययन भावी जीवन में उसके लिये उपयोगी सिद्ध नहीं होने वाला किंतु उसी काल में यदि वह गृहस्थी के कार्यों में निपुणता प्राप्त करती है तो वह उसके भावी जीवन में पग-पग पर उपयोगी सिद्ध होगा।’’
‘‘यह तो स्पष्ट रूप से आधी से भी अधिक मानव जाति के साथ स्पष्ट अन्याय ही है। मैं पुनः कह रहा हूँ कि आप तथ्यों का अनावश्यक रूप से विकृत-निरूपण कर रहे हैं। आपने गर्दभों और अश्वों की बात की, मैं तो कहता हूँ कि यदि इन गर्दभों को उचित वातावरण दिया जा सके तो इनमंे से अधिसंख्य स्वयं को अश्व सिद्ध कर सकते हैं। अधिसंख्य नहीं तो आधे तो निर्विवाद रूप से कर सकते हैं और कुछ तो स्वयं को अश्वों से भी श्रेष्ठ सिद्ध कर सकते हैं। दूसरी ओर आपके कितने सारे अश्व भी अंततः गर्दभ ही सिद्ध होते हैं। कितने सारे ब्राह्मण ऐसे हैं जो ब्राह्मणत्व को कलंकित करते हैं। मात्र शिखा और सूत्र धारण कर लेने मात्र से ही ब्राह्मणत्व नहीं प्राप्त हो जाता। यदि ऐसा होता तो सारे ब्राह्मण स्वयं को वशिष्ठ, विश्वामित्र या अगस्त्य सिद्ध कर चुके होते। समस्त ब्राह्मण मंत्रदृष्टा होते।’’
‘‘अपनी ही बात को लीजिये मंत्रिवर !’’ गुरुदेव हँसते हुये बोले - ‘‘कितनी ही पीढ़ियांे से वशिष्ठ अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर रहे हैं, यह उनके श्रेष्ठ और शुद्ध रक्त का ही तो प्रताप है। यही स्थिति, विश्वामित्र, अगस्त्य, गौतम, कण्व, कश्यप सभी के साथ है। आज सभी जो रावण के उत्कर्ष से भयभीत हो रहे हैं वह भी तो पुलस्त्य के रक्त का ही प्रताप है। मंत्रिवर ! व्यक्ति के पूर्वजों के रक्त की श्रेष्ठता उसकी श्रेष्ठता के निर्धारण में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक है। इसे आपको स्वीकार करना ही पड़ेगा। इसी प्रकार शूद्र, जो प्रायः किसी न किसी शिल्पकार्य से ही जुड़े हैं, उन्हें भी उनके कार्य में निपुणता अपने पूर्वजों से विरासत में मिलती है। साथ ही वे माँ की कोख से जन्म लेते ही उसी वातावरण में श्वास लेते हैं। अपने पैतृक कार्य में अतीव निपुणता उन्हें बिना प्रयास के ही प्राप्त हो जाती है। यदि उनका बाल्यकाल अन्यान्य विद्यायों को सीखने में व्यय हो गया तो वे अपने पैतृक कार्य में इतने निपुण नहीं हो पायेंगे। क्योंकि तब उनका मस्तिष्क दुविधाग्रस्त होगा। एक काष्ठकार अपनी सम्पूर्ण मेधा अपने पैतृक कार्य में लगाने के स्थान पर सम्पूर्ण जीवन अपने कार्य के साथ-साथ अन्य विद्याओं में भी भटकता रहेगा। आखिर ककहरा तो उनका भी उसने सीखा ही होगा। वह कुछ समय वेदों को देगा, कुछ समय शस्त्र संचालन को देगा, कुछ समय अन्य शिल्पों को देगा और अपने कर्म में बस काम निकालने भर की निपुणता प्राप्त कर पायेगा। इसलिये कुछ योग्य गर्दभों को अश्व बनने का अवसर देने के लिये समस्त गर्दभों और अश्वों के चरम नैपुण्य को बलिदान नहीं किया जा सकता।’’
‘‘गुरुदेव आपके मनोमस्तिष्क में पीढ़ियों से जो धारणायें घर कर चुकी हैं वे आपको निष्पक्ष चिंतन नहीं करने दे रहीं। आप जनसंख्या के एक बड़े भाग के साथ सतत हो रहे अन्याय का पक्ष ले रहे हैं।’’
‘‘उस बड़ी जनसंख्या का पक्षधर बनने के लिये आप हैं तो मंत्रिवर ! मैं आपको बाधा भी तो नहीं दे रहा, आप जितने भी चाहें गर्दभों को अश्व सिद्ध करने के लिये स्वतंत्र हैं। हाँ ! आपकी इस बात से मैं सहमत हूँ कि मेरी धारणायें पीढ़ियों से पोषित हुई हैं, उन्हें आपके साथ क्षणिक तर्क-वितर्क बदल नहीं सकता। उनकी जड़े अत्यंत गहरी हैं।’’
अब जाबालि हँसे। इतनी देर में पहली बार उनके मुख पर निर्मल हास्य ने नर्तन किया। वे बोले -
‘‘तो फिर निष्कर्ष क्या निकला गुरुदेव ?’’
‘‘यही कि मुझे मेरी धारणाओं पर दृढ़ रहते हुये मेरा कार्य करने दीजिये और आप अपने स्तर पर जो भी प्रयोग करना चाहते हैं कीजिये। क्या पता व्यवस्थित रूप से आपके प्रयोग कालांतर में मेरी धारणा को मिथ्या सिद्ध कर दें ! उस स्थिति में आपसे अधिक प्रसन्नता मुझे ही होगी।’’
‘‘बहुत बड़ी बाधा है उसमें भी गुरुदेव ! जो धारणा आपके मन में घर किये है वही धारणा सम्पूर्ण आर्य-समाज में भी तो घर किये है। शूद्र या महिलायें स्वयं ही अपनी स्थिति को अपनी नियति माने बेठी हैं। आपको क्या लगता है कि यह बच्ची ... क्या नाम बताया था आपने बालक का ? ...’’
‘‘वेद !’’
‘‘हाँ वेद की बहन मेरे सम्पूर्ण आश्वासन के बाद भी आ पायेगी मेरे पास ज्ञानार्जन के लिये ?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘मुझे भी ऐसा ही लगता है।’’
‘‘तो हताश क्यों होते हैं मंत्रिवर ! मैं तो जिस जाबालि को जानता हूँ, उसने पराजय स्वीकार करना नहीं सीखा। मुझसे आप जब भी, जो भी सहयोग चाहेंगे, मैं अपनी धारणा को बदले बिना आपको सहर्ष प्रदान करूँगा। यह इस वृद्ध ब्राह्मण का आपको वचन है।’’
दोनों हँस पड़े। फिर जाबालि ने गुरुदेव से आज्ञा ली और चिंतन में डूबे हुये प्रस्थान कर गये।

क्रमशः


मौलिक तथा अप्रकाशित


- सुलभ अग्निहोत्री

Views: 430

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय  अशोक  भाईजी हार्दिक धन्यवाद आभार आपका।  लगता है गेयता की समस्या  मेरी…"
6 seconds ago
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय लक्ष्मण भाईजी हार्दिक धन्यवाद आभार आपका। "
8 minutes ago
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीया प्रतिभाजी  हार्दिक धन्यवाद आभार आपका। "
11 minutes ago
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"धन्यवाद  भाव स्पष्ट करने  के लिए |"
13 minutes ago
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"लड़ियाँ  झूमें  ओने-कोने,  फूले-फले  त्योहार।...उत्तम कामना है आपकी किन्तु…"
2 hours ago
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
" दूर दूर रहना मजबूरी, बिखर गया परिवार।               …"
2 hours ago
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"ग्राहक सोचे क्या-क्या ले लूँ , और किसे दूँ छोड़.... सच यही स्थिति होती है सजा हुआ बाज़ार देखकर.…"
2 hours ago
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीया प्रतिभा पाण्डे जी सादर, प्रस्तुत छंद गीत पर आपकी सराहना ने सृजन को सार्थकता प्रदान की है.…"
2 hours ago
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव साहब सादर, आपको भी दीपोत्सव की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं. प्रस्तुत…"
2 hours ago
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय भाई लक्षमण धामी जी सादर, प्रस्तुत छंदों की सराहना हेतु आपका हृदय से आभार. सादर "
2 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"आ. भाई अखिलेश जी, सादर अभिवादन। बहुत सुंदर छंद हुए हैं। हार्दिक बधाई।"
3 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"सरसी छंद *****मिट्टी  के  दीपों  की  जगमग,  दीपों  वाला …"
3 hours ago

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service