नया साल चढ़ा है
कुछ बुदबुदाता हुआ
आया है नया साल
ओढ़े बबूलपन के संग
बुद्धी की सचाई की
मुरझाई पुष्पलता
हो सकता है यह पहनावा
नया फ़ैशन है नए समय का
कहते हो तुम
नया साल चढ़ा है
तुम खुश थे कितने कुछ ही दिन पहले
मदिरा पीते, नाचते सड़कों पर जशन मनाते
झूमते गाते कहते सब से नया साल चढ़ा है
अरे, नया साल ही तो चढ़ा
मुझमें तुममें कुछ बदला क्या ?
निराकार गुमनाम अनबूझी झूठी
प्रत्याशा की अग्नि का उस दिन
कैसा अजीब ज्वार चढ़ा था तुम पर
कि जैसे सदियों से चलती आई
संवेदना-रहित बर्फ़-सी ठँडी
अमानवता पर कोई रंग नया चढ़ेगा
समय की महानदी में गोते खाते
डूबते, किसी पत्थर का सहारा लेते
पागलपन इससे बड़ा और क्या होगा
यही प्रत्याशा लिए ही मात्र एक साल पहले
नाचते गाते मदिरा पीते लड़खड़ाते गिरते
किया था तुमने उस एक नए साल का स्वागत
खुश हो अब उसी "जाते साल" की लाश धकेलते ?
नया साल ही तो चढ़ा है
क्या ज़िन्दा हुए हैं
तुम और मैं
फिर से इस साल
असंवेदना की छाती के आरपार ?
सिमटी पड़ी है सारी बीसवीं सदी
कितने "गए साल" चले गए इतिहास के पन्नों में
मैदान में गिरे सूखे निर्जीव पत्तों-से पड़े
कांप रही है मानवता की तस्वीर भी जिस बात से
अमानवता की ज़ुबान अभी भी लगातार
वही ज़हर उगल रही है
इस पर भी कहते नहीं थकते हो तुम ...
आई है इक्कीसवीं सदी, नया साल चढ़ा है ?
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, भाई समर कबीर जी
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, मित्र लक्ष्मण जी।
प्रिय भाई विजय निकोर जी आदाब, बहुत बहतरीन रचना हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
आ. भाई विजय निकोर जी, सादर अभिवादन।अच्छी रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।
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