शख्स उसको भी तो दीवाना समझ बैठे थे हम l
जो था अच्छा उस को बेचारा समझ बैठे थे हम l
अब न जीतेगा ज़माना भी हमेशा की तरह,
जिस तरह का था उसे वैसा समझ बैठे थे हम l
गीत गाया था बहारों पर सुनाया था कहाँ,
जब ख़िज़ाँ को भी अगर अपना समझ बैठे थे हम l
फूल ये बिखरा तो खुशबू सा शजर बनता मिला,
"इस ज़मीन ओ आसमां को क्या समझ बैठे थे हम l"
ये जहाँ बदला मगर ये जिंदगानी क्यूँ नहीं,
झूठ दुनिया जिस कहे सच्चा समझ बैठे थे हम l
मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
जनाब मोहन बेगोवाल जी आदाब,ओबीओ के तरही मिसरे पर ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
'जिस तरह का था उस वैसा समझ बैठे थे हम'
इस मिसरे में 'उस' को "उसे" कर लें ।
'ये जहाँ बदला मगर ये जिंदगी क्यूँ नहीं'
ये मिसरा बह्र से ख़ारिज हो रहा है,'ज़िन्दगी' को "जिंदगानी" कर लें,बह्र में आ जायेगा ।
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