(2122 1122 1122 22 /112 )
बोल उठी सच हैं लकीरें तेरी पेशानी की
इस जवानी ने बहुत जिस्म की मेहमानी की
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क्या दिया कोई किसी अपने को धोका तूने
वज्ह आख़िर तो कोई होगी पशेमानी की
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वक़्त का पहिया लगातार चले मर्ज़ी से
फ़िक्र उसको नहीं दुनिया की परेशानी की
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आब जिस रूप में हो उसकी बशर है क़ीमत
तिश्नगी में ही ज़रूरत न फ़क़त पानी की
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ज़िंदगी भर की सज़ा लिख दी मुक़द्दर में मेरे
क्यों ख़ुदा प्यार की इक छोटी सी नादानी की
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क्या हुआ ज़ीस्त में गर पीरी ने दी है दस्तक
इस में क्या बात भला दोस्त है हैरानी की
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हाल मुफ़लिस के नहीं आज भी बेहतर हैं ख़ुदा
है ज़रूरत उसे रब अब भी निगहबानी की
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एक मिसरे से भला नज़्म कभी शेर हुआ
कुछ भी ऊला के बिना पूछ नहीं सानी की
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आइना जानता है राज़ सभी तेरे 'तुरंत '
जिसने हर रोज़ तेरे रुख़ की नज़रसानी की
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गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय Samar kabeer साहेब , सच में आपकी नज़र बहुत तेज़ है , मैं लाख सर मारता तो भी मेरे समझ नहीं आती ये बात , जबकि आपकी नज़र सीधी वहीं गई है | सादर नमन |
आदरणीय Samar kabeer साहेब , आपकी हौसला आफ़जाई के लिए शुक्रगुज़ार हूँ | सादर नमन | क्या मुफ़लिस एक वचन है तो "है " नहीं होगा सर ,या यह शब्द एक वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है इसलिए "हैं " आएगा ?
जनाब गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है,बधाई स्वीकार करें ।
'वज़ह आख़िर तो कोई होगी पशेमानी की '
इस मिसरे में 'वज़ह' को
"वज्ह" कर लें ।
'क्यों ख़ुदा प्यार की इक छोटी सी नादानी की'
इस मिसरे में 'की' शब्द दो बार खटकता है,इसे यूँ कर सकते हैं:-
'क्यों ख़ुदा प्यार में इक छोटी सी नादानी की'
'हाल मुफ़लिस के नहीं आज भी बेहतर है ख़ुदा'
इस मिसरे में 'है' को "हैं" कर लें ।
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