मगर, तुम न आए ....
मैं ठहरी रही
एक मोड़ पर
अपने मौसम के इंतज़ार में
तड़पती आरज़ूओं के साथ
भीगती हुई बरसात में
मगर
तुम न आए
गिरती रही
मेरी ज़ुल्फ़ों पर रुकी हुई
बरसात की बूँदें
मेरे ही जलते बदन पर
थरथराती रही मेरे लबों पर
शबनमी सी इक बूँद
तुम्हारे स्पर्श के इंतज़ार में
मगर
तुम न आए
अब्र के पैरहन से
ढक गया आसमान
साँझ की सुर्खी से
रंग गया आसमान
आँखों में लेटी रही
ह्या
अपने ही अंदाज़ में
इक छुअन के इंतज़ार में
मौसम धड़कता रहा
दिल की वादियों में
साँझ ने छोड़ दिया दामन
इंतज़ार का
सो गयी शब् की थपकियों से
फ़ना हो गई साथ मेरे
इंतज़ार से थकी
मेरी साँस
चीख़ती रही तन्हाई
मगर
तुम न आए
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय समर कबीर साहिब, आदाब, सृजन के भावों को समृद्ध करती आपकी प्रेरक प्रतिक्रिया का दिल से शुक्रिया।
जनाब सुशील सरना जी आदाब, अच्छी रचना हुई है, बधाई स्वीकार करें ।
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