पल सुनहरी सुबह के खोयेंगें हम
और कितनी देर तक सोयेंगें हम।
रात काली तो कभी की जा चुकी
अब अँधेरा कब तलक ढोयेंगे हम।
जुगनुओं जैसा चमकना सीख लें
रोशनी के बीज फिर बोयेंगे हम।
बीत जाता है समय जैसा भी हो
क्यों हँसेंगे और क्यों रोयेंगें हम।
आदतें अहसां-फरामोशी की हैं
चाँदनी को धूप से धोयेंगें हम।
काम बचपन में किये जो फिर करें
क्या कभी इतने बड़े होयेंगें हम।
#मौलिक व अप्रकाशित
Comment
रचना जी, आपका आभार कि आपने सुझाव प्रस्तुत किया। विचार अवश्य करूँगा।
जनाब रफ़ीक़ साहब बहुत बहुत आभार
आदरणीय चेतन जी, रचना की प्रशंसा के लिए आभार।
ग़ज़ल में रदीफ़ येंगें हम है
और क़ाफ़िया "ओ है।
आदरणीय अजय गुप्ता जी बेहतरीन ग़ज़ल हुई बधाई स्वीकार करें।
मुझे "जुगनुओं जैसा सीख लें" में सीख "कर"
अधिक अच्छा लगा। सादर।
जनाब अजय गुप्ता साहब ,आप की ग़ज़ल अच्छी लगी । मुबारक बाद कबूल कीजिए ।
क्षमा करें, दोस्त क्या बता पाएंगे आपके रदीफ और काफिया क्मशः क्या हैं विषय-वस्तु यानि ( थीम्स ) अथवा सरोकार निश्चय ही प्रशंसनीय हैं।
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