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आग़ाज मुहब्बत का वो हलचल भी नहीं है

आँखों में इजाज़त है हलाहल भी नहीं है।

क्या हिन्दू मुसलमाँ बना फिरता है ज़माने

इन्सान बनेगा कोई अटकल भी नहीं है ।

आसान नहीं होता जहाँ रोटी जुटाना,
तू मौज मनाता दुखी बेकल भी नहीं है |

क़मज़र्फ बने मत कि कमाना नहीँ पड़ता
मुँहजोर है औलाद उसे कल भी नहीं है |

है एक मुसीबत वो निभाने हैं मरासिम,
अब वक्त बचा क़म है, वो दल-बल भी नहीं है

आवाज़ लगाऊँ तो कोई भी नहीं आता
मदमस्त हुए लोग तो वो हल भी नहीं हैं |

अब वक्त बदलने का हिसाब अपना है, 'चेतन'
तू रोक सकेगा बचा कुछ बल भी नहीं है ?

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Chetan Prakash on December 10, 2020 at 10:18pm

आदरणीय समर कबीर साहब नमन, आपने ग़ज़ल तक पहुँचने की जहमत की, बहुत शुक्रिया, आपका, जनाब ! ग़जल आपकी संस्तुति पा सकी, मुझे प्रोत्साहन मिला। साभार

Comment by Samar kabeer on December 10, 2020 at 11:56am

जनाब चेतन प्रकाश जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।

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