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आग़ाज़ मुहब्बत का वो हलचल भी नहीं है
आँखों में इज़ाज़त है तो हलचल भी नही हैं
क्या हिन्दू मुसलमाँ बना फिरता है, ज़माने
ऐसी तो खुदाया यहाँ हलचल भी नहीं है
आसान नहीं होता जहाँ रोटी का कमाना
इस ओर तो तेरी कहीं हलचल भी नहीं है
क़मज़र्फ बने मत कि कमाना नहीं आता
औलाद ने उस ओर की हलचल भी नहीं है
है एक मुसीबत वो निभाने हैं, मरासिम
सुन वक़्त बचा क़म है वो हलचल भी नहीं है
आवाज़ लगाऊँ तो कोई भी नहीं आता
वो कान जो सुनता है तो हलचल भी नहीं है
अब वक़्त बदलना तो वो आसान रहा कब
है चक्र समय का वो सो हलचल भी नहीं है
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आ. भाई चेतन जी, सादर अभिवादन । गजल का प्रयास अच्छा हुआ है । शेष आ. समर जी कह ही चुके हैं । हार्दिक बधाई ।
आदाब, आदरणीय, आप सही कह रहै है अवकाश मिलते ही आपके संकेतानुसार पुनः सही स्वरूप में ग़ज़ल
पोस्ट करूँगा ।
'हलचल भी नहीं है' तो रदीफ़ है, क़वाफ़ी मतले में 'वो' और 'तो' हैं, बाक़ी अशआर बिना क़ाफ़िये के हैं, ग़ौर करें ।
आदाब आदरणीय, समर कबीर साहब , उक्त ग़ज़ल के मतले के दोनों मिसरों में चूँकि एक ही काफिया ( हलचल ) है, अतः उसे अंत तक निभाने प्रयास मैंने किया है। साभार
जनाब चेतन प्रकाश जी आदाब, क़ाफ़िये क्या हैं इस ग़ज़ल के?
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