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इक मैं थी इक मेरा साथी,सुन्दर इक संसार था 

संसार नहीं था एक समंदर,बसता जहां बस प्यार था 

छोटे बडे़ सभी रिश्तों की,मर्यादा यहाँ पालन होती थी 

प्यार की हर नदिया का,सम्मान यहाँ पर होता था 

मिलती जब कोइ नदिया समुद्र से,हर्षोल्लास बरसता था 

बाहें फैला समुद्र भी अपनी,सबका स्वागत करता था 

ना जाने फिर इकदिन कैसा एक बवंडर आया था 

सारा समंदर सूख गया,बस मरुस्थल ही बच पाया था 

आज प्रयत्न मैं कर रही,मरुभूमि में कुछ पुष्प खिलाने का 

कुछ सुकूं जो दे सकें,स्वागत मरुभूमि में आने वालों का 

मौलिक/अप्रकाशित 

   वीणा 

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Comment by Veena Gupta on December 31, 2020 at 1:06am

आभार आपका कबीर जी ,रचना के अवलोकन के लिए धन्यवाद 

Comment by Samar kabeer on December 30, 2020 at 2:56pm

मुहतरमा वीणा जी आदाब, अच्छी रचना हुई है, बधाई स्वीकार करें ।

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