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गजल ~ "कलंदर लोग हैं शीशे से पत्थर तोड़ लेते हैं"

1222 1222 1222 1222

कहानी कोई हो अपने मुआफ़िक़ मोड़ लेते हैं

सभी किरदारों से किरदार अपना जोड़ लेते हैं

बड़ी तकलीफ़ देती हैं के चलती हैं ये साँसें भी

बड़े फाज़िल हैं हम भी रोज़ खुशियाँ जोड़ लेते हैं 

ब-ज़िद हैं आस्तीं के साँप डसने को तो डसने दो

बड़े अफ़ज़ल हैं हम भी साँपों के फन तोड़ लेते हैं 

सुना है तुम समंदर हो तो फिर औकात में रहना

हमें भी आते हैं करतब के दरिया मोड़ लेते हैं 

कहाँ हिम्मत पहाड़ों में हमारा रास्ता रोकें

कलंदर लोग हैं शीशे से पत्थर तोड़ लेते हैं 

ख़ुशी हो या हो कोई ग़म सभी मेहमान हैं दिल के

अजब वो लोग हैं जो टूटकर सब तोड़ लेते हैं 

बड़ी शिद्दत से दुनिया राहों में कांटे बिछाती है

बड़े आराम से हम चुभती नोकें तोड़ लेते हैं 

दिवाने पन की अपने भी कोई सीमा नहीं यारो

जुनूँ में ख़ुद ही ख़ुद से ख़ुद का ही सर फोड़ लेते हैं 

हमारा दिल कोई तोड़े तो तोड़े कैसे की 'आज़ी'

ग़ज़ब ही लोग हैं हम ख़ुद से ही दिल तोड़ लेते हैं

आज़ी तमाम

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Aazi Tamaam on February 13, 2021 at 11:46am

सादर प्रणाम रचना जी

शुक्रिया रचना भाटिया जी मार्गदर्शन करने के लिये अभी ठीक किये देते हैं

कृपया मार्गदर्शन करती रहें

धन्यवाद

Comment by Rachna Bhatia on February 13, 2021 at 10:57am

आदरणीय आज़ी तमाम जी ग़ज़ल पर अच्छा प्रयास किया।बधाई स्वीकार करें।

मतले में सहीह लफ़्ज़ मुआफ़िक़ है ।

दूसरे में तकाबुल-ए-रदीफ़ है।

तीसरे में रब्त समझ नहीं आया।

कृपया ध्यान दे...

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