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ग़ज़ल (निगाहों-निगाहों में क्या माजरा है)

122-122-122-122

निगाहों-निगाहों में क्या माजरा है

न उनको ख़बर है न हमको पता है

न  तुमने  कहा  कुछ न  मैंने  सुना है 

निगाहों  से  ही  सब  बयाँ  हो रहा है

ख़ुमारी फ़ज़ा में ये छाई है कैसी  

ख़िरामा ख़िरामा नशा छा रहा है 

मुहब्बत की  ऐसी  हवा चल  पड़ी ये

मुअत्तर  महब्बत  में सब  हो गया है 

मिलाकर निगाहें तेरा मुस्कुराना 

मेरे दिल पे जानाँ ग़ज़ब ढा गया है 

निगाहें  तुम्हारी   हैं  मयख़ाना  जैसे 

तुम्हें  देखा  जब  से नशा हो गया है 

ये मिलना मिलाना हमारा तुम्हारा

ज़माने की आँखों में चुभने लगा है

ज़माने  से  मुझको  नहीं  लेना  देना 

मुझे  तेरे  पहलू  में  जब  आसरा  है 

तू मुझमें समाई मैं तुझमें समाया 

नहीं इश्क़ की भी कोई इन्तहा है 

रवाँ  ज़िन्दगी  ये  तेरे  दम  से  मेरी

मैं  कश्ती  तेरी  तू  मेरा  नाख़ुदा है 

''मौलिक व अप्रकाशित'' 

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Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on March 6, 2021 at 6:07pm

जनाब लक्ष्मण धामी भाई 'मुसाफ़िर' जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद बाइस-ए-शरफ़ है, सुख़न नवाज़ी और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया। सादर।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 6, 2021 at 4:55pm

आ. भाई अमीरूद्दीन जी, सादर अभिवादन । अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई।

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