व्यंग्य - ले लीजिए स्वर्णकाल का आनंद यह बात सही है कि हर किसी की जिंदगी में कभी न कभी स्वर्णकाल आता ही है। उपर वाला निश्चित ही एक बार जरूर छप्पर फाड़कर देता है, ये अलग बात है कि कुछ लोग उस छप्पर में समा जाते हैं तो कुछ लोग पूरे छप्पर को समा लेते हैं। कर्म तो प्रधान होना चाहिए, मगर भाग्य से भरोसा भी नहीं उठना चाहिए, क्योंकि यह तो सभी जानते हैं, जब स्वर्णकाल का दौर चलता है तो फिर फर्श से अर्श की दूरी मिनटों में तय होती है, मगर जब संक्रमणकाल चलता है तो फिर अर्श से फर्श तक आने में पल भर नहीं लगता। अब देखिए, पीएम साहब को। हो सकता है, पीएम बनने की ख्वाहिश उनके मन में रही होगी, मगर बैठे-बिठाए ऐसा स्वर्णकाल आएगा, ऐसा वे सपने में भी नहीं सोचे रहे होंगे। तभी तो जी भर कर वे स्वर्णकाल का आनंद ले रहे हैं। भ्रष्टाचार के गटर से बाहर आ रही गंदगी के वे मुखिया हैं और फिर भी उन्हें ईमानदार कहे जा रहे हैं ? भला, इससे बड़ा ‘स्वर्णकाल’ क्या हो सकता है ? खुद की जमात के लोग कह रहे हैं कि पीएम, अब काबिल नहीं रहे, युवराज की ताजपोशी कर दो। कुछ जमाती लोग दबी जुबान से पीएम की कुर्सी तोड़ने में लगे हैं, मगर पीएम साहब कह रहे हैं, अभी उन्हें उपरी हुकूमत ने इशारा नहीं किया है, जब कर देंगे, तब कुर्सी की मोह से किनारे हो लेंगे। विरोधी व एक तबका, उन्हें यह कह रहे हों कि वे कमजोर हैं, मगर वे पूरे जोश-खरोश के साथ अटल हैं और रटारटाया जवाब दे रहे हैं, वे इस ढलती उम्र में भी देश में भ्रष्टाचार, घोटाले, भुखमरी से निपटने अकेले ही पर्याप्त हैं, किसी का साथ नहीं चाहिए, बस एक ही नाम है, जिनका सहारा चाहिए ? साथ ही चुटेले अंदाज में वे कह सकते हैं, बुढ्डा होगा तेरा बाप, क्योंकि आज यही खुमारी उम्रदराज लोगों में छाई हुई है। ऐसे में इस जुमले से हमारे पीएम साहब कैसे दूर हो सकते हैं, क्योंकि दम रखते हैं, तभी तो किसी से कम नहीं लगते हैं। ये अलग बात है कि देश, भ्रष्टाचार की गर्त में चला जा रहा है, मगर उनका रूख स्पष्ट नहीं है। देश दिन-ब-दिन खोखला होता जा रहा है, सफेदपोश, देश की संपत्ति को काले बनाने में लगे हैं। खुद के साथ कंधे से कंधे मिलाकर बरसों तक राग आलापने वाले कुछ लोग, जेल की चारदीवारी में हैं। फिर भी हमारे पीएम हैं, जैसे लगता है, उनका चल निकला है। एक बार नहीं, देश की उदार जनता ने उन्हें दो बार मौके दिए हैं और स्वर्णकाल का पूरा आनंद लेने का अवसर मिला है, लेकिन वही जनता, बेकारी, भ्रष्टाचार, घोटाले के संक्रमण से सूख रही है। अब क्या कहें पीएम जी, आपको और आपके राजनीतिक जमातियों को ? जनता कर भी क्या सकती है, उसे जो अधिकार मिला है, उसका वे बंटाधार कर चुकी है। ये तो वही हुआ, जैसे ‘चिड़िया चुग गई खेत, अब काहे पछताय’। जनता के लिए सिवाय ढांढस के कुछ नहीं है और उपरी हुकूमत में स्वर्णकाल का रंग चढ़ा है।
राजकुमार साहू
लेखक व्यंग्य लिखते हैं।
जांजगीर, छत्तीसगढ़
मोबा . - 098934-94714
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online