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रसाल_छन्द, प्रकृति से खिलवाड़

सुस्त गगनचर घोर,पेड़ नित काट रहें नर,
विस्मित खग घनघोर,नीड़ बिन हैं सब बेघर।
भूतल गरम अपार,लोह सम लाल हुआ अब,
चिंतित सकल सुजान,प्राकृतिक दोष बढ़े सब।

दूषित जग परिवेश, सृष्टि विषपान करे नित।
दुर्गत वन,सरि, सिंधु,कौन समझे इनका हित,
है क्षति प्रतिदिन आज,भूल करता सब मानव,
वैभव निज सुख स्वार्थ,हेतु बनता वह दानव।

होय विकट खिलवाड़,क्रूर नित स्वांग रचाकर।
केवल क्षणिक प्रमोद,दाँव चलते बस भू पर,
मानव कहर मचाय,छोड़ सत धर्म विरासत
लोलुप मन विकराल,दुष्ट गढ़ता नित आफत।

संकट अति विकराल,होय अब मानव शोषण,
भोग जगत परिणाम,रोग अरु घोर कुपोषण।
क्रूर प्रलय जग माय,प्राण बचने अब मुश्किल,
आज जगत असहाय,जीव दिखते सब धूमिल।


मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप" on May 25, 2021 at 8:28pm

उत्साहवर्धन हेतु हार्दिक आभार भैया।

Comment by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on May 23, 2021 at 9:37am

शुचि बहन इस कष्ट साध्य छंद में बिगड़ते पर्यावरण पर बहुत सार्थक सृजन।

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