संगदिल गर ज़िन्दगी है उससे टकराना भी क्या ।
फोड़कर सर अपना यारो रोना चिल्लाना भी क्या ।।
ज़िन्दगी गर है चुनौती मुँह छिपाकर जीना क्या ।
हाथ दो - दो होने दो फिर सच को झुठलाना भी क्या
कीमती आँसू हैं तेरे वो निशाँ जुल्म ओ सितम,
बंद दरवाजों के आगे सर वो फुड़वाना भी क्या ।
कर खुदा की बन्दगी और एहतराम उसका कर ले,
लोग ही क़मज़र्फ हैं गर उनको जतलाना भी क्या ।
नोंचनी लाशें हैं उनको कौम को है बाँटना,
शह्र सौदागर आये हैं तो मुँह दिखलाना भी क्या ।
बढ़ रही तन्हाईयाँ हैं उम्र के बढ़ने के साथ,
खाली खाली जीस्त है तो फिर सर खुजलाना भी क्या ।
दूसरे कोने क्षितिज के कहकशाँ कोई तो है,
स्पष्ट देखाकर तू 'चेतन' कह्र घबराना भी क्या ।
मौलिक व अप्रकाशित
प्रोफ. चेतन प्रकाश 'चेतन'
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