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ग़ज़ल: संगदिल गर ज़िन्दगी है उस से टकराना भी क्या ...!

संगदिल गर ज़िन्दगी  है उससे टकराना भी क्या ।

फोड़कर सर अपना यारो रोना चिल्लाना भी क्या ।।

ज़िन्दगी गर है चुनौती मुँह छिपाकर जीना क्या ।

हाथ  दो - दो होने  दो फिर सच को झुठलाना भी क्या 

कीमती आँसू हैं तेरे वो निशाँ जुल्म ओ सितम, 

बंद दरवाजों के आगे  सर वो फुड़वाना भी  क्या ।

कर खुदा की  बन्दगी  और एहतराम उसका  कर ले, 

लोग  ही क़मज़र्फ हैं गर उनको जतलाना भी  क्या ।

नोंचनी  लाशें हैं उनको कौम को है बाँटना, 

शह्र सौदागर आये हैं तो मुँह दिखलाना भी क्या ।

बढ़ रही तन्हाईयाँ हैं उम्र के बढ़ने के साथ,  

खाली खाली जीस्त है तो फिर सर खुजलाना भी क्या । 

दूसरे  कोने क्षितिज के  कहकशाँ  कोई तो है, 

स्पष्ट देखाकर तू 'चेतन' कह्र घबराना भी क्या  ।

मौलिक व अप्रकाशित 

प्रोफ. चेतन प्रकाश 'चेतन'

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