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मेरे अपनों का ही खंजर मेरी तलाश में है ।
जिन्हें बनाया था अफसर मेरी तलाश में है ।।
जड़ों को सींच रहा हूँ शुरू से ओ बी ओ की,
नये आए हैं वो चाकर मेरी तलाश में हैं ।
जताते झूूठा वो हक़ जो ग़ज़ल की शोहरत पर,
उन्हीं के हाथ का पत्थर मेरी तलाश में है ।
बहुत गुमान है उनको तो जन्म के शहर का,
नगर का हूँ मैं तो रहबर मेरी तलाश में हैं ।
जहाँ में सच के सहारे अभी कोई तो रहे,
कि घर में हूँ कोई बाहर मेरी तलाश में है ।
जिसे उठा के हमीं ने फलक पे टाँका था ,
सितारा जो रहा नौकर मेरी तलाश में है ।।
अभी बदल तो रही ज़िन्दगी ज़रा 'चेतन'
पता मुझे है वो हद कर मेरी तलाश में है ।
मौलिक एवं अप्रकाशित
प्रोफ. चेतन प्रकाश 'चेतन'
Comment
मतले के सानी मिसरे में है, के स्थान पर है ं, गलत टंकित हुआ है, इसका मुझे खेद है, आदरणीय !
नमस्कार, सुशील सरना साहब, आपने उत्साह बढ़ाया, ग़ज़ल आपको अच्छी लगी, आपका आभारी हूँ!
आदरणीय, रवि शुक्ला जी नमन, स्पष्ट और विस्तार से अपनी बात कहे, आभारी हूँ गा, ! सादर
आदरणीय चेतन प्रकाश जी ग़ज़ल की अच्छी कोशिश हुई है मगर एक दो जगह बह्र खारिज हो रही है तो मतले में रदीफ बदल रहा है । नजर−ए−सानी कीजियेगा । सादर
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