संगदिल फिर ज़िन्दगी है उससे टकराना भी क्या !
फोड़कर सर अपना यारो रोना-चिल्लाना भी क्या !!
कीमती आँसू हैं तेरे वो निशाँ जुल्म ओ सितम,
बंद दरवाजों के आगे सर को टकराना भी क्या !
कर खुदा की बन्दगी और एहतराम उसका कर ले,
लोग ही क़मज़र्फ हों गर उनको जतलाना भी क्या !
बढ़ रही तन्हाईयाँ है उम्र के बढ़ने के साथ,
खाली-खाली जीस्त है गर वो सर खुजलाना भी क्या !
नौंचनी हैं उनको लाशें क़ौम भी तो बाँटनी,
शहर सौदागर आये उनको मुँह दिखलाना भी क्या !
ज़िन्दगी गर है चुनौती मुँह छिपाकर जीना क्या !
हाथ दो-दो होने दो फिर सच को झुठलाना भी क्या !
दूसरे कोने क्षितिज के कहकशाँ कोई तो है,
ख्वाब देखाकर तू'चेतन'बारहा घबराना भी क्या !
मौलिक एवम् अप्रकाशित
प्रोफ. चेतन प्रकाश 'चेतन'
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