विछोह मुझे मिलन लगता है.....!
जीना मुझे यज्ञ में आहुति
मरना गंगा जल लगता है
जब से होठ, छुए होठों से,
गाँव गुमा शहर वो लगता है
विछोह मुझे मिलन लगता है !
अथाह गहरा है समन्दर वो
मगर मोती सीप रहता है
पालनहार जानता सब कुछ,
रू में उसकी वो खुद रहता है
विछोह मुझे मिलन लगता है !
ग़ज़ल मुझे बाँसुरी कान्हा की
दिल वो अलगोझा लगता है
तेरे मेरे बोझ दुखों का,
वो लक्ष्मण झूला लगता है
विछोह मुझे मिलन लगता है !
खिलता फूल तोड़कर माली
चरणों प्रभु के रख देता है
समर्पण पुष्प का ईश मुझे,
आसमान क्षितिज लगता है
विछोह मुझे मिलन लगता है !
प्रोफ. चेतन प्रकाश 'चेतन'
मौलिक एवम् अप्रकाशित
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