निर्णय तुम्हारा निर्मल
तुम जाना ...भले जाना
पर जब भी जाना
अकस्मात
पहेली बन कर न जाना
कुछ कहकर
बता कर जाना
जानती हो न, चला जाता है
अनजाने चुपचाप
क्षण में
क्षंण का जीवन
बरसती-गिरती बूँद क्या जाने
अथाह सागर की गहराई
मेरी आँखों के छोर बन्द करती-सी
तुम्हारी बर्फ़ीली पथरीली कठोर चुप्पी
हो तुम मुझसे दूर कहीं पर
उलझ-उलझ कर, छान-बीन कर
खोल देता हूँ स्मृतियों के वातायन
देखे हैं उर के आँगन में
छायामय अनमनी उदासी लिए
सहज सरल परिवर्तन अनेक
पर बिखर-बिखर छलक-छलक
लगता है इस बार मैं
चलती गाड़ी की खिड़की से
बाहर धकेल दिया गया हूँ
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
प्रिय समर कबीर जी और बॄजेश कुमार जी। रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार।
सादर,
विजय निकोर
आदरणीय विजय हमेशा की तरह एक बेहतरीन भावपूर्ण कविता...बधाई
प्रिय भाई विजय निकोर जी आदाब, हमेशा की तरह सुंदर रचना हुई है, बधाई स्वीकार करें ।
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