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उन्माद नाम धर्म के लिख राजनीति ने-लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२२१/२१२१/१२२१/२१२
मजहब की नफरतों का ये मन्जर नया नहीं
टोपी तिलक के बीच का अन्तर नया नहीं।१।
*
कितनों को कोसें और कहें जा निकल अभी
जाफर विभीषणों से भरा घर नया नहीं।२।
*
कितना बचेंगे साध के चुप्पी भला यहाँ
अपनों की आस्तीन का खन्जर नया नहीं।३।
*
उन की जुबाँ पे आज भी बँटवारा बैठा है
अपनों से पायी पीर का सागर नया नहीं।४।
*
उन्माद नाम धर्म के लिख राजनीति ने
देना तो देश दुनिया को उत्तर नया नहीं।५।
*
उलझे हुओं की सोच में तारण उसी से पर
छिप-छिपके जाल डालता रहबर नया नहीं।६।
*
तहख़ाने खुल रहे हैं जो सदियों पुराने फिर
कहना पड़ेगा सब को ही भीतर नया नहीं।७।
*
कितनी सदी से ठहरा है दुर्दिन हमारे यूँ
जीवन में आया कोई भी पलभर नया नहीं।८।
*
अस्मत उतरती रोज है लाचार क्या करें
लाशों सी औरतों को ये बिस्तर नया नहीं।९।
*

मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 6, 2022 at 7:48am

आ. भाई दयाराम जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति, प्रशंसा और स्नेह के लिए आभार....

Comment by Dayaram Methani on June 5, 2022 at 10:02pm

आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, अति सुंदर व सामयिक रचना के लिए बधाई।

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