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मजहब की नफरतों का ये मन्जर नया नहीं
टोपी तिलक के बीच का अन्तर नया नहीं।१।
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कितनों को कोसें और कहें जा निकल अभी
जाफर विभीषणों से भरा घर नया नहीं।२।
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कितना बचेंगे साध के चुप्पी भला यहाँ
अपनों की आस्तीन का खन्जर नया नहीं।३।
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उन की जुबाँ पे आज भी बँटवारा बैठा है
अपनों से पायी पीर का सागर नया नहीं।४।
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उन्माद नाम धर्म के लिख राजनीति ने
देना तो देश दुनिया को उत्तर नया नहीं।५।
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उलझे हुओं की सोच में तारण उसी से पर
छिप-छिपके जाल डालता रहबर नया नहीं।६।
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तहख़ाने खुल रहे हैं जो सदियों पुराने फिर
कहना पड़ेगा सब को ही भीतर नया नहीं।७।
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कितनी सदी से ठहरा है दुर्दिन हमारे यूँ
जीवन में आया कोई भी पलभर नया नहीं।८।
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अस्मत उतरती रोज है लाचार क्या करें
लाशों सी औरतों को ये बिस्तर नया नहीं।९।
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मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
Comment
आ. भाई दयाराम जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति, प्रशंसा और स्नेह के लिए आभार....
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, अति सुंदर व सामयिक रचना के लिए बधाई।
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