मुक्तक : गाँव .....
मिट्टी का घर  ढूँढते, भटक  रहे  हैं  पाँव।
 कहाँ गई पगडंडियाँ, कहाँ गए वो  गाँव ।
 पीपल बूढ़ा हो गया, मौन हुए सब  कूप -
 काली सड़कों पर हुई, दुर्लभ ठंडी छाँव ।
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 कच्चे घर  पक्के  हुए, बदल  गया  परिवेश ।
 छीन लिया हल बैल का, यंत्रों  ने अब देश ।
 बदले- बदले अब लगें , भोर साँझ  के  रंग  -
 वर्तमान  में  गाँव  का, बदल  गया  है  पेश ।
 (पेश =रूप, आकार )
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 गाँवों ने भी ले लिया , अब शहरों का रूप ।
 हरियाली ओझल हुई , लुप्त हुए सब कूप ।
 घूंघट जैसे  हो  गया, बीते  युग  की  बात -
 कंक्रीट  के  गाँव  में, छाया  खाती  धूप ।
सुशील सरना / 11-7-22
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