बुढ़ापा ....
तन पर दस्तक दे रही, जरा काल की शाम ।
काया को भाने लगा, अच्छा अब आराम ।1।
बीते कल की आज हम, कहलाते हैं शान ।
शान बुढ़ापे की हुई, अपनों से अंजान ।2।
झुर्री-झुर्री पर लिखा, जीवन का संघर्ष ।
जरा अवस्था देखती ,मुड़ कर बीते वर्ष ।3।
देख बुढ़ापा हो गया, चिन्तित क्यों इंसान ।
शायद उसको हो गया, अन्तिम पल का भान ।4।
काया में कम्पन बढी , दृष्टि हुई मजबूर ।
अपनों से अपने हुए, जरा काल में दूर ।5।
लघु शंका बस में नहीं, मुँह से गिरती लार ।
जरा अवस्था को मिला, तानों से शृंगार ।6।
बूढ़ी काया के सभी, टूट गए अरमान ।
जर्जर काया की बनी, लाठी अब सन्तान ।7।
जीवन हारा जीत से, आई अन्तिम शाम ।
अंग- अंग देने लगा, चलने का पैगाम ।8।
सुशील सरना / 6-7-22
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। सुन्दर दोहे हुए हैं। हार्दिक बधाई।
आदरणीय सुशील सरना जी, बुढ़ापे पर अति सुंदर सृजन के लिए बधाई।
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