कुत्तों के दो गुट थे,झबड़ा गुट और कबड़ा गुट।दोनों गुट एक –दूसरे के धुर विरोधी थे।पहले गुट का प्रभाव क्षेत्र विस्तृत था, दूसरे का सीमित। दूसरा गुट अपने क्षेत्र में छीनाझपटी, काटाकुटी के लिए ज्यादा मशहूर था।तीसरी जमात कबड़ी नाम की एक काली कुतिया की थी। वह धूर्तता के लिए विख्यात थी। गोस्त वगैरह की हवा लगते ही वह दुम हिलाती वहाँ पहुँच जाती। कबड़ी की गाढ़ी दोस्ती एक सफेद, भूरी आँखों वाली लबड़ी नाम की बिल्ली से थी। वह दूध -मलाई, गोस्त वगैरह की खबर कबड़ी कुतिया को देती रहती।
कबड़ी कभी झबड़ा से गँठजोड़ करती, कभी कबड़ा से।वह इस बार फिर कबड़ा कुक्कुर के साथ हो गई।माँस -मलाई खूब उड़ाई जाने लगी।यह सब देख कुक्कुर समाज कबड़ा कुक्कुर गुट की करतूतों को उजागर करने के लिए हो-हल्ला मचाए हुए है।कबड़ी कुतिया के साथ छोड़ उधर होने से झबड़ा गुट कबड़ा गुट से अलग ही खार खाये हुए है। कुक्कुर समाज से आवाज उठी, 'इतने सारे हड्डी के ढेर कबड़ा के अड्डे के पास आए कहाँ से?जरूर कुछ गड़बड़ है।'
‘हाँ हाँ।कई मेमनाएँ भी गायब बताई गई हैं।' झबड़ा का झुंड भी शोर मचाते हुए इस मुहिम में शामिल हुआ।
चारों तरफ कबड़ी की थू -थू हो रही है।छीनाझपटी और मारामारी के चलते समाज में कोहराम मच हुआ है। कबड़ा के घर की तलाशी और उसके घरवालों से पूछताछ का दौर फिर से शुरू हो गया है।बीमार कबड़ा परेशान है। 'ई सब ई साली कबड़ी के चलते हुआ है। जहाँ जाती है, वहाँ सबकी नजर गड़ जाती है।सबको वहाँ सबकुछ काला ही दिखने लगता है।' कबड़ा झुँझलाकर कहता है। 'म्याऊँ...म्याऊँ...मैं तो कहीं हूँ नहीं।' लबड़ी बिलाई लुबलुबा कर बोली।
'धुत्त सुसरी! सब कुछ तेरा ही तो किया-कराया है।' कबड़ा ने उसे दुतकारा।
'चल रे मन! ई कुक्कुर सब कुक्कुरे रहा। म्याऊँ ... म्याऊँ।'
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय लक्ष्मण भाई जी, आपका आभार। नमन।
आ. भाई मनन जी, सादर अभिवादन। सुन्दर लघुकथा हुई है । हार्दिक बधाई स्वीकारें।
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