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पुरुष की व्यथा

अंतरराष्ट्रीय_पुरुष_दिवस

पुरूष क्यूँ
रो नहीं सकता?
भाव विभोर हो नहीं सकता
किसने उससे
नर होने का अधिकार छिन लिया?
कहो भला
उसने पुरुष के साथ ऐसा क्यूँ किया?
क्या उसका मन आहत नहीं होता?
क्या उसका तन
तानों से घायल नहीं होता?
झेल जाता है सब कुछ
बस अपने नर होने की आर में
पर उसे रोने का अधिकार नहीं है
रोएगा तो कमज़ोर माना जायेगा
औरों से उसे
कमतर आँका जायेगा
समाज में फिर तिरस्कार होता है
अपनों के हीं सभा में
फिर उसका वहिष्कार होता है
पर उसका
रोना भी तो जरूरी है ना
मन की व्यथा
कहना भी तो जरूरी है ना
एक दिन ऐसा आयेगा
वो पूर्णत: पत्थर बन जायेगा
और शायद एक दिन
वो घुट-घुट कर मर भी जाये
पर उस दिन भी
यह समाज उसे रोने नही देगा
अपने स्वांग के लिये
बिखरने नहीं देगा
पर बिखरना ही तो सवरने की तरफ पहला कदम है
वो बिखरेगा तो ही सवंरेगा
टुटेगा तो ही बनेगा
गिरेगा तो ही उठेगा
रोएगा तो हँसेगा
हँसेगा तो हँसायेगा
तो हे पुरुष
आज तुम्हे इस बधंन से मुक्त करते हैं
तमु रो लो
जी भर कर रो लो
विलाप करो
चाहो तो छाती भी पीट लो
या अपने आँसुओं मे गोते ही लगा लो
अपना मन व्यर्थ के भार से मुक्त करो
अपना संताप मिटाओ
और फिर इस समाज को
अपने हृदय से माफ करो
रो लो पुरुष, आज तुम खलू के रो लो


"मौलिक व स्वरचित"
अमन सिन्हा

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