मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222/1222/1222/1222
कहीं भी जाइए रूस्वाइयाँ आवाज़ देती हैं
बुरे कर्मों की सब परछाइयाँ आवाज़ देती हैं
कभी चिड़िया कभी गुड़िया कभी लख़्त-ए-जिगर कहकर
मुझे रस्मों की सब मजबूरियाँ आवाज़ देती हैं
बुलंदी पर पहुँचता है जो कोई अपनी मिहनत से
जहाँ भर की उसे शाबाशियाँ आवाज़ देती हैं
भले ही आज होती हैं समानधिकार की बातें
लगी सदियों की सब पाबंदियाँ आवाज़ देती हैं
हताशा ज़िंदगी को जब कभी ख़ामोश है करती
लुढक कर ज़ह्र की तब शीशियाँ आवाज़ देती हैं
बिना मर्ज़ी बदन सौंपे विवश फेरों से होकर जो
छिपी तकियों में उसकी सिसकियाँ आवाज़ देती हैं
चली आती है अपने ख़्वाब अक्सर तोड़कर "राखी"
करे भी क्या जो ज़िम्मेदारियाँ आवाज़ देती है
(मौलिक,अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय जैफ़ जी बेहद शुक्रिया आपका
जी आदरणीय के निर्देशों को ध्यान में रखते हुए सुधार का प्रयास अवश्य करूंगी
आदरणीय समर कबीर साहब आपके द्वारा दिए गए वक्त और मार्गदर्शन के लिए हृदय से आभारी हूं
सुधार किए हैं आदरणीय
मेरा सौभाग्य है कि आपका मार्गदर्शन प्राप्त हो रहा है
आ. राखी जी, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है। आ. समर सर जी की इस्लाह क़ाबिल-ए-ग़ौर है। सादर।
मुहतरमा राखी जी आदाब, ओबीओ पटल पर आपका स्वागत है I
ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें I ग़ज़ल के साथ उसके अरकान भी लिख दिया करें इससे सीखने वालों के लिए आसानी होती है I अब आते हैं आपकी ग़ज़ल की तरफ़ I
'वतन की मिट्टी की ख़ातिर बदन की मिट्टी हो कुर्वां
उठा कर सर अगर ग़द्दारियाँ आवाज़ देती हैं'----इस शे`र के दोनों मिसरों में रब्त नहीं है , देखिएगा I
'ढली रस्मों में सब मजबूरियाँ, आवाज़ देती हैं'---इस मिसरे में 'ढली' शब्द उचित नहीं है , उचित लगे तो इसकी जगह "मुझे" कर सकती हैं , और 'में' की जगह "की" शब्द उचित होगा , विचार करें I
'बुलंदी पर पहुँचता जो बनाकर ख़ुद को है क़ाबिल
जहां पर भी रहे शाबाशियाँ आवाज़ देती है'----इस शे`र का वाक्य विन्यास ठीक नहीं उचित लगे तो इसे यूँ कहें :-
"बुलंदी पर पहुँचता है जो कोई अपनी मिहनत से
जहाँ भर की उसे शाबाशियाँ आवाज़ देती हैं "
'तराजू ले अदालत में वो पट्टी बांध रहती और
क़तारों में सिसकती अर्जियाँ आवाज़ देती हैं'---इस शे`र का भाव स्पष्ट नहीं , कौन पट्टी बाँध रहती है? दोनों मिसरों में रब्त नही नहीं है , वाक्य विन्यास भी ठीक नहीं इस पर विचार करें I
'भले ही आज होती हैं समानधिकार की बातें
लगी सदियों की सब पाबंदियाँ आवाज़ देती हैं'--- इस शे`र के दोनों मिसरों में रब्त नहीं है देखिएगा I
'लुड़ककर ज़हर की तब शीशियाँ आवाज़ देती हैं'---इस मिसरे में 'लुड़ककर' को "लुढक कर" और 'ज़हर' को "ज़ह्र" लिखें
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online