सियाह शब की रिदा पार कर गया सूरज
जो सुब्ह आई तो उम्मीद भर गया सूरज
बड़ा ग़ुरूर तमाज़त पे था इसे लेकिन
तपिश हयात की देखी तो डर गया सूरज
हमारे साथ भी रौनक हमेशा चलती है
कि जैसे नूर उधर है जिधर गया सूरज
ग्रहण लगा के जहाँ ने मिटाना चाहा मगर
मेरे वजूद का फिर भी संँवर गया सूरज
ज़मीं से दूर बहुत दूर जब ये रहता है
तो कैसे दरिया के दिल में उतर गया सूरज
यतीम बच्चों ने वालिद की मौत पर सोचा
किसी मक़ाम पे कैसे ठहर गया सूरज
तमाम उम्र ज़िया की थी 'आरज़ू' जो मुझे
तो वक़्त-ए-शाम दिया मुझ में धर गया सूरज
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आ. अंजुमन जी, अभिवादन। अच्छी गजल हुई है। हार्दिक बधाई।
आरज़ू मैम, बहुत उम्दा। सादर।
उस्ताद मोहतरम समर कबीर साहब आदाब, मतला की ख़ूबसूरत इस्लाह के लिए बहुत शुक्रिया, मक़्ता सुधारने की कोशिश करती हूं फिर एक साथ एडिट करूंगी ।
मुहतरमा अंजुमन 'आरज़ू' जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें I
'सियाह शब की रिदा पार कर गया सूरज'---इस मिसरे में 'रिदा' शब्द के साथ 'पार' शब्द उचित नहीं इसकी जगह "चाक" शब्द उचित होगा, और अगर 'पार' शब्द ही रखना है तो 'रिदा' की जगह "नदी" शब्द उचित होगा, ग़ौर करें I
'तमाम उम्र ज़िया की थी 'आरज़ू' जो मुझे
तो वक़्त-ए-शाम दिया मुझ में धर गया सूरज'---इस शे`र के ऊला का वाक्य विन्यास ठीक नहीं है, बदलने का प्रयास करें I
बाक़ी शुभ-शुभ I
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