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अभी बस पर ही टूटे हैं अभी अंबर नहीं टूटा
परिंदा टूटा है बाहर अभी अंदर नहीं टूटा /1
सितारा यूंँ तो टूटा है मेरी तक़दीर का लेकिन
ख़ुदा का शुक्र है तदबीर का अख़्तर* नहीं टूटा /
हमारे ख़ैर ख़्वाहों ने बहुत चाहा मगर अब तक
हमारे दिल में है उम्मीद का जो घर नहीं टूटा /3
सियासत के सताने पर भी बोला जो हमेशा सच
वो जाने कैसी मिट्टी का है ज़र्रा भर नहीं टूटा /4
कई मख़्लूक़* की है ज़िंदगी गौहर का घर फिर भी
फ़क़त खारा कहा सबने मगर सागर नहीं टूटा /5
हर इक टूटी हुई शय से नयी इक चीज़ बनती है
न उसका कुछ बना दुनिया में जो अक्सर नहीं टूटा /6
निकलकर दुख के पर्वत से मिले पत्थर ही पत्थर पर
नदी-सी 'आरज़ू' का अब तलक तेवर नहीं टूटा /7
स्वरचित व मौलिक
Comment
आदरणीया अंजुमन 'आरज़ू' जी , उम्दा ग़ज़ल कही है आपने बधाई स्वीकार करें I
मुह्तारमा अंजुमन 'आरज़ू' जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें I
'अभी बस पर ही टूटे हैं अभी अंबर नहीं टूटा
परिंदा टूटा है बाहर अभी अंदर नहीं टूटा '--- मतले के ऊ;ला मिसरे में 'अंबर' को "अम्बर" लिखें, मिसके सानी मिसरे में 'से' शब्द की कमी खल रही है, ग़ौर करें I
'कई मख़्लूक़* की है ज़िंदगी गौहर का घर फिर भी
फ़क़त खारा कहा सबने मगर सागर नहीं टूटा '---इस शे`र के दोनों मिसरों में रब्त नहीं है, भाव भी स्पष्ट नहीं हुआ, ग़ौर करें I
बाक़ी शुभ शुभ I
आ. अंजुमन जी, अभिवादन। गजल का प्रयास अच्छा है हार्दिक बधाई।
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