चार रुपये लिए थे, मेरे दादा ने कर्ज़ में
कल तक बाबा चुका रहे थे, ब्याज उसका फर्ज़ में
रकम बढ़ी फिर किश्त की, हर साल के अंत में
मूलधन खड़ा है अब भी, ब्याज दर के द्वंद में
चार बीघा ज़मीन थी, अपना खेत खलिहान था
हँसता खेलता घर हमारा, स्वर्ग के समान था
बाढ़ आयी सब तबाह हुआ, बाबा की हिम्मत टूट गयी
कल तक जो खिली हुई थी, किस्मत जैसे रूठ गयी
साहूकार ने हांथ बढ़ाया, सहयोग के नाम पर
कब से नज़र जमा रखी थी, उसने हमारी मकान पर
फसल उजड़ी बैल मरे, सबकुछ बाढ़ के भेंट चढ़ी
द्वार हमारे लेनदार की, लंबी सी कतार लगी
गहने बेचे माँ ने तन के, बर्तन बासन का दान लिया
दो बीघा ज़मीन को भी, कौड़ियों में नीलाम किया
बिन कागज के पैसे देकर, साहूकार ने एहसान किया
कई सालों में आखिर उसने, हमारा घर अपने नाम किया
दादा गुजरे बाबा गुजरे, मैं भी बूढ़ा होने को
मेरा बेटा बड़ा हुआ अब, कर्ज़ के बोझ को ढोने को
"मौलिक व अप्रकाशित"
अमन सिन्हा
Comment
आदरणीय अमन सिन्हा जी, आपने पुश्तैनी क़र्ज़ की पीड़ा को बहुत मार्मिक ढंग से शाब्दिक किया है. भावपूर्ण प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई. यह भी अवश्य है कि अपने भावों को शाब्दिक करने के क्रम में रचना के गठन पर भी ध्यान दिया जाये तो रचना में निखर आ जाता है और वह अधिक सम्प्रेषणीय और प्रभाव कारी हो जाती है. केवल द्वीपदी में लयहीन प्रस्तुति उन भावो का वैसा संचार नहीं कर पाती जैसा अपेक्षित होता है. आप ओबीओ मंच पर छंदों के जो पाठ उपलब्ध हैं उन्हें अवश्य देखिएगा. रचना में लयात्मकता कविता का गुण है. जैसे आपकी प्रस्तुति को यदि लयबद्ध किया जाये तो कुछ ऐसी होगी -
चार रुपये बस लिए कर्ज़ में सालों पहले दादा ने
अब तक उसका ब्याज चुकाते फ़र्ज़ समझकर बाबूजी
बढ़ती गई रकम किश्तों की, रहा मूलधन वैसा ही
दिन-पर-दिन बस ब्याज बढ़ा है, लगता सबकुछ पैसा ही
जमीं चार बीघा थी लेकिन, खुद की खेती करते थे
गल्ला घर में आता, लाते - खुशियाँ भर भर बाबूजी
बाढ़ तबाही लेकर आई, हिम्मत भी सारी टूटी
कल तक किस्मत साथ हमारे, फिर जैसे हमसे छूटी
साहूकार ने हाथ बढ़ाया, बस सहयोग जताया था
समझ न पाए उसकी नज़रों में अपना घर बाबूजी
फसलें उजड़ी, बैल मर गए, जीवन की निठुराई में
बर्तन बासन दान लिया, सब गहने बेचे माई ने
दो बीघा का पट्टा भी फिर भेंट चढ़ा नीलामी के
लम्बी कतारें लेनदारों की देखें दर पर बाबूजी
साहूकार ने खेल रचा था, बिन कागज़ देकर पैसे
घर को खुद के नाम लिखाकर, समझाया जैसे-तैसे
दादा बाबूजी जी तो गुजरे, मैं भी बूढ़ा होने को
मेरे बेटे, बोझ क़र्ज़ का जाते देकर बाबूजी
इन पंक्तियों में केवल आपके भावों को लयात्मकता दी है. एक बार विचार अवश्य कीजियेगा. सादर
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online