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बाद एक हादिसे के जो चुप से रहे हैं हम
अपनी ही सुर्ख़ आँख में चुभते रहे हैं हम
ये और बात है की मुकम्मल न हो सका
इक ख़त किसी के नाम जो लिखते रहे हैं हम
सबसे जरूरी काम में पीछे रहे मगर
बाक़ी हर एक बात में आगे रहे हैं हम
वैसे तो हमसे जीतना मुमकिन न था मगर
अपनी रज़ा से आप से पीछे रहे हैं हम
इक रोज़ तन्हा छोड़ गए आप तो हमें
दर्द उम्र भर ये हिज़्र का सहते रहे हैं हम
ये सच है हमने तेग़ उठाई नहीं कभी
'आज़ी' लहू में फिर भी नहाये रहे हैं हम
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
जी बहुत बहुत शुक्रिया आ ग़ज़ल तक आने व मार्गदर्शन करने के लिए
अच्छी इस्लाह दी है आपने ग़ज़ल मुकम्मल करने के लिए गौर करूँगा 🙏
आ. आज़ी तमाम भाई ,
ग़ज़ल के भाव बहुत उत्तम हैं... थोडा बहुत कारीगरी का मसअला है ..
देखें
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बाद एक हादिसे के जो चुप से रहे हैं हम
अपनी ही सुर्ख़ आँख में चुभते रहे हैं हम
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ये और बात है कि मुकम्मल न हो सका
इक ख़त किसी के नाम जो लिखते रहे हैं हम
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वैसे तो हम से जीतना मुमकिन न था मगर
अपनी रज़ा से अप्प से पीछे रहे हैं हम.
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और भी कई बहुत छोटे बदलाव कर के अशआर में हुस्न बढ़ जाएगा . अब आपका चिन्तन इस तरफ भी होना चाहिये ..
किसी भी मिसरे को कई तरह से कहने की कोशिश करें और जो सबसे अधिक सादा हो उसे रखें
सादर
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