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ग़ज़ल - ये जो खंडरों सा मकान है

11212    11212

इसी में तो मेरा जहान है

ये जो खंडरों सा मकान है

यूँ ही बोलने से बचा करें

यूँ कि तुंद-ख़ू ये ज़बान है

नया खून है वो है जोश में

अभी ज़िंदगी में उफान है

न है आसमाँ न है तू ज़मीं

तुझे ख़ुद पे कितना गुमान है

तेरी जाति क्या है बिसात क्या

तेरा ज़िस्म ख़ाक समान है

न क़ुसूर कोई 'तमाम' अब

न बची उमंग न जान है

मौलिक व अप्रकाशित

(आज़ी तमाम) 

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Comment

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Comment by Aazi Tamaam on March 6, 2024 at 2:47pm

बहुत बहुत शुक्रिया आ धामी सर ग़ज़ल पर आपकी बधाई के लिए 🙏

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 2, 2024 at 6:45pm

आ. भाई आजी तमाम जी, अभिवादन। अच्छी गजल हुई है। हार्दिक बधाई।

Comment by Aazi Tamaam on January 25, 2024 at 11:05am

आ श्याम जी सहृदय शुक्रिया ग़ज़ल पर बधाई के लिए 🙏

Comment by Aazi Tamaam on January 25, 2024 at 11:04am

आ निलेश जी ग़ज़ल पर आपकी नज़र ए करम हुई बेहद शुक्रिया 🙏

Comment by Shyam Narain Verma on January 25, 2024 at 10:59am
नमस्ते जी, बहुत ही उम्दा प्रस्तुति, हार्दिक बधाई l सादर
Comment by Nilesh Shevgaonkar on January 25, 2024 at 10:54am

आ. आज़ी भाई 
अच्छी ग़ज़ल हुई है. बधाई स्वीकार करें 

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