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हर बार नई बात निकल आती है

बात यहीं खत्म होती तो और बात थी 

यहाँ तो हर बात में नई बात निकल आती है 

यूँ लगता है जैसे कि ये कोई बरगद का पेड़ है 

जहां से भी खोदो एक नई साख निकल आती है 

उलझने ऐसी है कि कोई छोड़ मिलती ही नहीं 

एक को खींचो तो संग मे दो चार चली आती है 

खुला है माँझा पड़े है बिखरे कई तार यहाँ 

खुले छत पर जैसे कोई पडी जाल नजर आती है 

कही थी जो बात तुमने जो बर्फी में लपेटे हमको 

परत जो उतरी नीम कि बौछार नजर आती है 

बड़ा सोचकर पड़ता है नज़र करना लफ्जों को 

ज़ुबां से फिसलकर जो निकली तो गुनहगार नज़र आती है 

जिसे होता है ग़ुमा अपने दौर-ए-जमाने का

उसे हो मालूम कि सुई कभी रुकती हीं नहीं 

वो तो डूबा रहता है आगोश में गुरुर के अपने 

पलक झपकती है यहाँ वहाँ रियासत चली जाती है 

दबा हो प्यार जो दिल में और कहने में उलझन हो 

नज़र चाहती तो है खूब मगर देख नहीं पाती है 

ज़रा सा दर्द दगा का जो लगे “झूठा” दिल में 

झूठा ही हो सही मगर दिल की बात निकल आती है 


कोई मजहब नहीं होता भूखे का जहां में देखो 

रोटी कोई भी दे जाय तो बस दुआ निकल आती है 

भरा हो पेट जरा सा देखो फिर फितरत इनकी 

हर हाथ बढ़ाने वालों की भी ज़ात निकल आती है 

जब तलक छाँव देते है कीमत है उनकी 

जो कीमत मांग ली कभी तो बुरा लगता है 

वैसे तो पहचान है उनसे जहां में अपनी लेकिन 

जो खुद आई तो पहचान बादल जाती है 

क्या समझेंगे वो दर्द को पराये के जब तक

जो लगे खुद को कभी दर्द तब ही समझ आती है 

घाव दूसरे के देख जिसको आ जाए हंसी 

बन जाए जो खुद के तन पर तब टीस समझ आती है

"मौलिक व अप्रकाशित" 

अमन सिन्हा 

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