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"इस रात की खामोशी में, मुझे चीखने दो,
फिर एक बार, मैं ठहर जाऊंगा ....
चरागों का धुआं कुछ कह गया,
जैसे लाचार मौसम की थम-सी गई सांसें,
बहकी हुई हवाओं में खुद को खो रही हैं ...
रात ने बादलों की रजाई ओढ़ ली है,
जब सुबह का सूरज छत से उतर कर आंगन में बिखर जाएगा,
गेंदे जल उठेंगे,
लेकिन रातरानी की चमक मंद पड़ जाएगी ...
तुलसी के पत्ते की ओस में, तुम धूप को ओढ़ लेना,
जब मेरी याद तुम्हारी पलकों में छलक उठेगी,
वह रिश्ता भी बह उठेगा,
जो कभी ठहरा नहीं था तुम्हारे जीवन के तट पर ....
जिसे मैं कह नहीं पाया,
वह रिश्ता अब तुम्हारी आँखों से बह रहा है,
उसकी नमी सच्चाई की गवाही देती है,
और गमी हमारी परख करती है ...
मैं मरकर जी गया,
तुम जीकर मर गए ....
सफर में कौन होता है साथी?
बादलों की छांव भी कभी स्थिर नहीं होती ....
हमसफर किसे कहूं?
इस रात की खामोशी में, मुझे चीखने दो,
फिर एक बार, मैं ठहर जाऊंगा ...
चरागों का धुआं कुछ कह गया,
लाचार मौसम की थम-सी गई सांसें,
बहकी हुई हवाओं में खुद को खो रही हैं" ....

"मौलिक व अप्रकाशित"

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