दोहा पंचक. . . . शीत
अलसायी सी गुनगुनी , उतरी नभ से धूप ।
बड़ा सुहाना भोर में, लगता उसका रूप ।।
धुन्ध चीर कर आ गई, आखिर मीठी धूप ।
हाथ जोड़ वंदन करें, निर्धन हो या भूप ।।
शीत ऋतु में धूप से , मिले मधुर आनन्द ।
गरम-गरम हो चाय फिर , रचें प्रेम के छन्द ।।
शीत भोर की धुंध में, ठिठुर रही है धूप ।
शरमाता है शाल में, गौर वर्ण का रूप ।।
धुन्ध भयंकर साथ फिर, शीतल चले बयार ।
पहन चुनरिया ओस की, भोर करे शृंगार ।।
सुशील सरना / 20-11-24
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