दोहा सप्तक. . . . विविध
मौन घाट मैं प्रेम का, तू चंचल जल धार ।
कैसे तेरे वेग से, करूँ अमर अभिसार ।।
जब आती हैं आँधियाँ, करती घोर विनाश ।
अपनी दम्भी धूल से, ढक देती आकाश ।।
मैं मेरा की रट यहाँ, गूँज रही हर ओर ।
निगल न ले इंसान को,और -और का शोर ।।
किसको अपना हम कहें, किसको मानें गैर ।
अपनेपन की आड़ में, लोग निकालें बैर ।।
अर्थ बिना संसार में, सब कुछ लगता व्यर्थ ।
आभासी दुश्वारियाँ, केवल हरता अर्थ ।।
कल ही कल की सोच में, क्या पाया नादान ।
न तो संवरा आज ही, न संवरी पहचान ।।
नवयुग की अब क्या कहें, अजब हुआ व्यवहार ।
चौखट पर संस्कार की, दूषित हुए विचार ।।
सुशील सरना / 25-11-24
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