और बहुत कुछ जग में सुन्दर, फिर क्यों तू ही मन को भाये|
आग बुझाता है जब पानी, ये बरखा क्यों अगन लगाए||
जी करता है, पिघल मै जाऊं, तेरे साँसों की गरमी में|
अजब सुकून मुझे मिलता है तेरे हाथों की नरमी से||
मै तुझमे मिल जाऊं ऐसे, कोई भी मुझको ढूंढ़ न पाए|
आग बुझाता है जब पानी, ये बरखा क्यों अगन लगाए|
और बहुत कुछ जग में सुन्दर, फिर क्यों तू ही मन को भाये|
जब-जब गिरती नभ से बूँदें , मै पूरा जल जल जाता हूँ|
जी करता है भष्म हो जाऊं, पर तुमको ना पता हूँ||
तू अंगार जला दे मुझको, कहीं पे कुछ भी छूट न पाए|
और बहुत कुछ जग में सुन्दर, फिर क्यों तू ही मन को भाये|
आग बुझाता है जब पानी, ये बरखा क्यों अगन लगाए||
तड़प-तड़प के रह जाता हूँ, जैसे मछली जल बिन तरसे|
बहुत सताती हो तुम मुझको, जब-जब ये बादल है बरसे||
मेरी प्यास बुझा दे ऐसे, सारा बदन ही तर हो जाए |
और बहुत कुछ जग में सुन्दर, फिर क्यों तू ही मन को भाये|
आग बुझाता है जब पानी, ये बरखा क्यों अगन लगाए||
Comment
आप लोगो को मेरी ये रचना पसंद आई मै बहुत प्रसन्न हूँ|
आप लोगो को बहुत बहुत धन्यवाद|
बड़ा कठिन सवाल पूंछा है आशीष भाई आपने ...लेकिन इतना खूबसूरत और भाव प्रधान है कि ह्रदय को बरबस छू लेता है.
इस सुन्दर रचना को पढाने का मौका देने के लिए धन्यवाद ....आपका आभार
और बहुत कुछ जग में सुन्दर, फिर क्यों तू ही मन को भाये|
बड़ा ही सुन्दर ख्याल है आशीषजी, बधाई हो.
badhiya prayaas hai..ashish bhai....likhna jari rakhiye....
श्री Arun Kumar Pandey 'Abhinav' जी उत्साह वर्धन हेतु धन्यवाद|
aadarniya Lata R.Ojha ji. hausla aafjai ke liye dhanywaad.
aadarniy विवेक मिश्र ji, aap logo ka margdarshan milta rahega to mai aage achchhi koshish karunga|
thankyou.
सुंदर अभिव्यक्ति..यूँही लिखते /सीखते /रचते रहिए:)
आशीष भाई,
ये शे'र तो सुना ही होगा आपने.
"सिर्फ अंदाज़-ए-बयाँ बदल देता है हर बात
वरना दुनिया में कोई बात नई बात नहीं-"
सौरभ जी की बातों से पूर्ण सहमत हूँ. आपकी पूर्व रचनाओं को पढ़कर ऐसा कह सकता हूँ कि आप इससे बहुत अच्छा लिख सकते हैं. आपके अन्दर है वो जोश, वो जूनून.
/और बहुत कुछ जग में सुन्दर, फिर क्यों तू ही मन को भाये|
आग बुझाता है जब पानी, ये बरखा क्यों अगन लगाए||/
इस कविता की सर्वाधिक सुन्दर पंक्तियों के लिए हार्दिक शुभकामनायें.
जय हो!
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