पाँति सजी मनभावन, पावन दीप जले, निशि राग भरी है 
 ज्योति से ज्योति जली, मनमोहन रूप धरे, मधु भाव भरी है 
 रौनक खूब हुई, चितमोहक भाव बने, घड़ियाँ शुभ आईं 
 दीप जले, उर-दीप खिले, लड़ियाँ सँवरीं, सखियाँ जुड़ि आईं ||1||
 
 कार्तिक ’मावस घोर सही, पर रात की मांग सजी-सँवरी है 
 ’पन्थ’ नहीं मन भेद सके कछु, प्रेम-उछाह बड़ी निखरी है 
 जीवन में नव ’पन्थ’ बनें,  अब नूतन आय,  पुरातन जाए 
 अंग से अंग मिले न मिले, उर-तार मिले, शुभता रस पाए ||2||
दीपन की अवली सु-भली, पुलकी-पुलकी सखियाँ मुसकावैं
 खील-बताश मिठाई मधुर सब, राग करैं, उपमा करि खावैं
 झूम रहीं सखियाँ, इनका मिलना जुलना अति नेह भरा है 
 सुन्दर-सुन्दर दीप जले, इस दीपक-हार का मोल बड़ा है  ||3||
 
 ओरि सखी, तुम दीप गहो, शुभ ज्योति प्रकाश से चित्र बनावैं 
 दीपक-पर्व शुभेशुभ पावन रात की गोद में मोद मनावैं
 रात-उजास तभी कहिये, जब भाव मिलै सब झूम के गावैं
 जीवन-पर्व  मने तबहीं,  जब जीवन-बोध सभी मिल पावैं  ||4||
 
 (२) 
(छंद - घनाक्षरी)
दीप हो रहे प्रदीप्त, तृप्त  उज्ज्वला  प्रभास  
 लीलती है लालसा को, लालिमा उजास की ||1||
 
 पन्थबद्ध रीतियाँ हैं, खोखली कुनीतियाँ हैं, 
 क्रूर हैं विधान तम,  प्रथा हो सुहास की  ||2||
 
 वर्ण-लिंग-जाति-वेष, त्याग, लोभ-लाभ-द्वेष 
 जुट गए हैं मीत भी,  भावना उद्भास की  ||3|| 
 
 दीप को संभाल कर, हैं श्रेणियों में बालते  
 ज्योति का है उत्स हेतु, साधना प्रकाश की  ||4||
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-- सौरभ
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(ओबीओ के ’चित्र से काव्य तक’ अंक - 7 में सम्मिलित/ संशोधित)
Comment
आदरणीय सौरभजी, इस खुबसूरत रचना की मैं निःशब्द प्रतिक्रिया दे पा रहा हूँ 
................... आपकी लेखनी को लख- लख बधाई
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