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माँ के हाथों की बनी जब दाल रोटी याद आई

पंचतारा होटलों की शानशौकत कुछ न भाई
बैरा निगोड़ा पूछ जाता किया जो मैंने कहा
सलाम झुक-झुक करके मन में टिप का लालच रहा
खाक छानी होटलों की चाहिए जो ना मिला
क्रोध में हो स्नेह किसका? कल्पना से दिल हिला
प्रेम मे नहला गई जब जम के तेरी डांट खाई
माँ के हाथों की बनी जब दाल रोटी याद आई
तेरी छाया मे पला सपने बहुत देखा किए
समृद्धि सुख की दौड़ मे दुख भरे दिन जी लिए
महल रेती के संजोए शांति मै खोता रहा
नींद मेरी छिन गई बस रात भर रोता रहा
चैन पाया याद करके लोरी जो तूने सुनाई
माँ के हाथों की बनी जब दाल रोटी याद आई
लाभ हानि का गणित ले ज़िंदगी की राह में
जुट गया मित्रों से मिल प्रतियोगिता की दाह में
भटका बहुत चकाचौंध में खोखला जीवन जिया
अर्थ ही जीने का अर्थ, अनर्थ में डुबो दिया
हर भूल पर ममता भरी तेरी हँसी सुकून लाई
माँ के हाथों की बनी जब दाल रोटी याद आई।

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Comment by LOON KARAN CHHAJER on November 29, 2011 at 5:02pm

गणेश जी

मेरी मा हम को रात  के दो बजे भी चुले पर रोटी सेक कर देती थी जब गैस नही हुआ करती थी. लकड़ियों के धुएँ मे किस तरह ठंडी रात मे गरम गरम रोटी खिलती ठी.अब ना मा है ना वो चुले .


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on November 26, 2011 at 11:36pm

माँ के हाथों की बनी दाल रोटी!!!!!!! ये तो कही नहीं मिल सकती, जब मिलेगी तो माँ की ही रसोई में, बहुत ही सुंदर रचना, बधाई स्वीकार करें |

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